श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 15-26

द्वादश स्कन्ध: अष्टम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: अष्टम अध्याय: श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्मन्! इस सातवें मन्वन्तर में जब इन्द्र को इस बात का पता चला, तब तो वे उनकी तपस्या से शंकित और भयभीत हो गये। इसलिये उन्होंने उनकी तपस्या में विघ्न डालना आरम्भ कर दिया।

शौनक जी! इन्द्र ने मार्कण्डेय जी की तपस्या में विघ्न डालने के लिये उनके आश्रम पर गन्धर्व, अप्सराएँ, काम, वसन्त, मलयानिल, लोभ और मद्र को भेजा। भगवन्! वे सब उनकी आज्ञा के अनुसार उनके आश्रम पर गये। मार्कण्डेय जी का आश्रम हिमालय के उत्तर की ओर है। वहाँ पुष्पभद्रा नाम की नदी बहती है और उसके पास ही चित्रा नाम की एक शिला है। शौनक जी! मार्कण्डेय जी का आश्रम बड़ा ही पवित्र है। चारों ओर हरे-भरे पवित्र वृक्षों की पंक्तियाँ हैं, उन पर लताएँ लहलहाती रहती हैं। वृक्षों के झुरमुट में स्थान-स्थान पर पुण्यात्मा ऋषिगण निवास करते हैं और बड़े ही पवित्र एवं निर्मल जल से भरे जलाशय सब ऋतुयों में एक-से ही रहते हैं। कहीं मतवाले भौंरे अपनी संगीतमयी गुंजार से लोगों का मन आकर्षित करते रहते हैं तो कहीं मतवाले कोकिल पंचम स्वर में ‘कुहू-कुहू’ कूकते रहते हैं; कहीं मतवाले मोर अपने पंख फैलाकर कलापूर्ण नृत्य करते रहते हैं तो कहीं अन्य मतवाले पक्षियों का झुंड खेलता रहता है।

मार्कण्डेय मुनि के ऐसे पवित्र आश्रम में इन्द्र के भेजे हुए वायु ने प्रवेश किया। वहाँ उसने पहले शीतल झरनों की नन्हीं-नन्हीं फुहियाँ संग्रह कीं। इसके बाद सुगन्धित पुष्पों का आलिंगन किया और फिर कामभाव को उत्तेजित करते हुए धीरे-धीरे बहने लगा। कामदेव के प्यारे सखा वसन्त ने भी अपनी माया फैलायी। सन्ध्या का समय था। चन्द्रमा उदित हो अपनी मनोहर किरणों का विस्तार कर रहे थे। सहस्र-सहस्र डालियों वाले वृक्ष लताओं का आलिंगन पाकर धरती तक झुके हुए थे। नयी-नयी कोपलों, फलों और फूलों के गुच्छे अलग ही शोभायमान हो रहे थे। वसन्त का साम्राज्य देखकर कामदेव ने भी वहाँ प्रवेश किया। उसके साथ गाने-बजाने वाले गन्धर्व झुंड-के-झुंड चल रहे थे, उसके चारों ओर बहुत-सी स्वर्गीय अप्सराएँ चल रही थीं और अकेला काम ही सबका नायक था। उसके हाथ में पुष्पों का धनुष और उस पर सम्मोहन आदि बाण चढ़े हुए थे। उस समय मार्कण्डेय मुनि अग्निहोत्र करके भगवान की उपासना कर रहे थे। उनके नेत्र बंद थे। वे इतने तेजस्वी थे, मानो स्वयं अग्निदेव ही मूर्तिमान् होकर बैठे हों! उनको देखने से ही मालूम हो जाता था कि इनको पराजित कर सकना बहुत ही कठिन है। इन्द्र के आज्ञाकारी सेवकों ने मार्कण्डेय मुनि को इसी अवस्था में देखा। अब अप्सराएँ उनके सामने नाचने लगीं। कुछ गन्धर्व मधुर गान करने लगे तो कुछ मृदंग, वीणा, ढोल आदि बाजे बड़े मनोहर स्वर में बजाने लगे।

शौनक जी! अब कामदेव ने अपने पुष्प निर्मित धनुष पर पंचमुख बाण चढ़ाया। उसके बाण के पाँच मुख हैं- शोषण, दीपन, सम्मोहन, तापन और उन्मादन। जिस समय वह निशाना लगाने की ताक में था, उस समय इन्द्र के सेवक वसन्त और लोभ मार्कण्डेय मुनि का मन विचलित करने के लिये प्रयत्नशील थे। उनके सामने ही पुंजिकस्थली नाम की सुन्दरी अप्सरा गेंद खेल रही थी। स्तनों के भार से बार-बार उसकी कमर लचक जाया करती थी। साथ ही उसकी चोटियों में गुँथे हुए सुन्दर-सुन्दर पुष्प और मालाएँ बिखर कर धरती पर गिरती जा रही थीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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