श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 87 श्लोक 11-16

दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय श्लोक 11-16 का हिन्दी अनुवाद


सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार- ये चारों भाई शास्त्रीय ज्ञान, तपस्या और शील-स्वभाव में समान हैं। उन लोगों की दृष्टि में शत्रु, मित्र और उदासीन एक से हैं। फिर ही उन्होंने अपने में से सनन्दन को तो वक्ता बना लिया और शेष भाई सुनने के लिये इच्छुक बनकर बैठ गये।

सनन्दन जी ने कहा- जिस प्रकार प्रातःकाल होने पर सोते हुए सम्राट् को जगाने के लिये अनुजीवी वंदीजन उसके पास आते हैं और सम्राट् के पराक्रम तथा सुयश का गान करके उसे जगाते हैं, वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाये हुए सम्पूर्ण जगत् को अपने में लीन करके अपनी शक्तियों के सहित सोये रहते हैं; तब प्रलय के अन्त में श्रुतियाँ उनका प्रतिपादन करने वाले वचनों से उन्हें इस प्रकार जगाती हैं।

श्रुतियाँ कहती हैं- अजित! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं, आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। आपकी जय हो, जय हो। प्रभो! आप स्वभाव से ही समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं, इसलिए चराचर प्राणियों को फँसाने वाली माया ने दोष के लिये- जीवों के आनन्दादिमय सहज स्वरूप का आच्छादन करके उन्हें बन्धन में डालने के लिये ही सत्त्वादि गुणों को ग्रहण किया है। जगत में जितनी भी साधना, ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियाँ हैं, उन सबको जगाने वाले आप ही हैं। इसलिए आपके मिटाये बिना यह माया मिट नहीं सकती। (इस विषय में यदि प्रमाण पूछा जाये, तो आपकी श्वासभूता श्रुतियाँ ही- हम ही प्रमाण हैं।) यद्यपि हम आपका स्वरूपतः वर्णन करने में असमर्थ हैं, परन्तु जब कहीं आप माया के द्वारा जगत् की सृष्टि करके सगुण हो जाते हैं या उसको निषेध करके स्वरूपस्थिति की लीला करते हैं अथवा अपना सच्चीदानन्दस्वरूप श्रीविग्रह प्रकट करके क्रीड़ा करते हैं, तभी हम यत्किंचित् आपका वर्णन करने में समर्थ होती है।[1]

इसमें सन्देह नहीं कि हमारे द्वारा इन्द्र, वरुण आदि देवताओं का भी वर्णन किया जाता है, परन्तु हमारे (श्रुतियों के) सारे मन्त्र अथवा सही मन्त्रदृष्टा ऋषि प्रतीत होने वाले इस सम्पूर्ण जगत् को ब्रह्मस्वरूप ही अनुभव करते हैं। क्योंकि जिस समय यह सारा जगत् नहीं रहता, उस समय भी आप बच रहते हैं। जैसे घट, शराव (मिट्टी का प्याला- कसोरा) आदि सभी विकार मिट्टी से ही उत्पन्न और उसी में लीन होते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलय आप में ही होती है। तब क्या आप पृथ्वी के समान विकारी हैं? नहीं-नहीं, आप तो एकरस- निर्विकार हैं। इसी से तो यह जगत् आप में उत्पन्न नहीं, प्रतीत है। इसलिए जैसी घट, शराव आदि का वर्णन भी मिट्टी का ही वर्णन है, वैसे ही इन्द्र, वरुण आदि देवताओं का वर्णन भी आपका ही वर्णन है। यही कारण है कि विचारशील ऋषि, मन से जो कुछ सोचा जाता है और वाणी से जो कुछ कहा जाता है, उसे आप में ही स्थित, आपका ही स्वरूप देखते हैं। मनुष्य अपना पैर चाहे कहीं भी रखे- ईंट, पत्थर या काठ पर- होगा वह पृथ्वी पर ही; क्योंकि वे सब पृथ्वीस्वरूप ही हैं। इसलिए हम चाहे जिस नाम या जिस रूप का वर्णन करें, वह आपका ही नाम, आपका ही रूप है।[2]

भगवन्! लोग सत्त्व, रज, तम- इन तीनों गुणों की माया से बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी-बुरी क्रियाओं में उलझ जाया करते हैं, परन्तु आप तो उस मायानटी के स्वामी, उसको नचाने वाले हैं। इसीलिए विचारशील पुरुष आपकी लीला कथा के अमृतसागर में गोते लगाते रहते हैं और इस प्रकार अपने सारे पाप-ताप को धो-बहा देते हैं। क्यों न हो, आपकी लीला-कथा सभी जीवों के मायामल को नष्ट करने वाली जो है। पुरुषोत्तम! जिन महापुरुषों ने आत्मज्ञान के द्वारा अन्तःकरण के राग-द्वेष आदि और शरीर के कालकृत जरा-मरण आदि दोष मिटा दिये हैं और निरन्तर आपके उस स्वरूप की अनुभूति में मग्न रहते हैं, जो अखण्ड आनन्दस्वरूप है, उन्होंने अपने पाप-तापों को सदा के लिये शान्त, भस्म कर दिया है- इसके विषय में तो कहना ही क्या है।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इन श्लोकों पर श्रीश्रीधर स्वामी ने बहुत सुन्दर श्लोक लिखे हैं, वे अर्थ सहित यहाँ दिये जाते हैं-
    जय जयाजित जह्यगजंमावृतिमजामुपनीतमृषागुणाम्।
    न ही भवन्तमृते प्रभंत्यमी निगमीतगुणार्णवता तव॥
    अजित! आपकी जय हो, जय हो! झूठे गुण धारण करके चराचर जीव को आच्छादित करने वाली इस माया को नष्ट कर दीजिये। आपके बिना बेचारे जीव इसको नहीं मार सकेंगे- नहीं पार कर सकेंगे। वेद इस बात का गान करते रहते हैं कि आप सकल सद्गुणों के समुद्र हैं।
  2. द्रुहिणवह्निरवींद्रमुखामरा जगदिदं न भवेत्पृथगुत्थितम्।
    बहुमुखैरपि मंत्रगणैरजस्त्वमुरुमूर्तिरतो विनिगद्यसे॥
    ब्रह्मा, अग्नि, सूर्य, इन्द्र आदि देवता तथा यह सम्पूर्ण जगत् प्रतीत होने पर भी आपसे पृथक् नहीं है। इसलिये अनेक देवताओं का प्रतिपादन करने वाले वेद-मन्त्र उन देवताओं के नाम से पृथक्-पृथक् आपकी ही विभिन्न मूर्तियों का वर्णन करते हैं। वस्तुतः आप अजन्मा हैं; उन मूर्तियों के रूप में भी आपका जन्म नहीं होता।
  3. सकलवेदगणेरितसद्गुणस्त्वमिति सर्वमनीषिजना रता:।
    त्वयि सुभद्रगुणश्रवणादिभिस्तव पदस्मरणेन गतक्लमा:॥
    सारे वेद आपके सद्गुणों का वर्णन करते हैं। इसलिये संसार के सभी विद्वान् आपके मंगलमय कल्याणकारी गुणों के श्रवण, स्मरण आदि के द्वारा आपसे ही प्रेम करते हैं और आपके चरणों का स्मरण करके सम्पूर्ण क्लेशों से मुक्त हो जाते हैं।

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