श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 35 श्लोक 8-13

दशम स्कन्ध: पंचत्रिंश अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचत्रिंश अध्याय श्लोक 8-13 का हिन्दी अनुवाद

अरी वीर! जैसे देवता लोग अनन्त और अचिन्त्य ऐश्वर्यों के स्वामी भगवान नारायण की शक्तियों का गान करते हैं, वैसे ही ग्वालबाल अनन्तसुन्दर नटनागर श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करते रहते हैं। वे अचिन्त्य ऐश्वर्य-सम्पन्न श्रीकृष्ण जब वृन्दावन में विहार करते हैं और बाँसुरी बजाकर गिरिराज गोवर्धन की तराई में चरती हुई गौओं को नाम ले-लेकर पुकारते हैं, उस समय वन के वृक्ष और लताएँ फूल और फलों से लद जाती हैं, उनके भार से डालियाँ झुककर धरती छूने लगती हैं, मानो प्रणाम कर रही हों, वे वृक्ष और लताएँ अपने भीतर भगवान विष्णु की अभिव्यक्ति सूचित करती हुई-सी प्रेम से फूल उठती हैं, उनका रोम-रोम खिल जाता है और सब-की-सब मधु धाराएँ ऊँड़ेलने लगती हैं।

अरी सखी! जितनी भी वस्तुएँ संसार में या उसके बाहर देखने योग्य हैं, उनमें सबसे सुन्दर, सबसे मधुर, सबके शिरोमणि हैं - ये हमारे मनमोहन। उनके साँवले ललाट पर केसर की खौर कितनी फबती है - बस, देखती ही जाओ! गले में घुटनों तक लटकती हुई वनमाला, उसमें पिरोयी हुई तुलसी की दिव्य गन्ध और मधुर मधु से मतवाले होकर झुंड-के-झुंड भौंरें बड़े मनोहर एवं उच्च स्वर से गुंजार करते रहते हैं। हमारे नटनागर श्यामसुन्दर भौंरों की उस गुनगुनाहट का आदर करते हैं और उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाकर अपनी बाँसुरी फूँकने लगते हैं। उस समय सखि! उस मुनिजन मोहन संगीत को सुनकर सरोवर में रहने वाले सारस-हंस आदि पक्षियों का भी चित्त उनके हाथ से निकल जाता है, छिन जाता है। वे विवश होकर प्यारे श्यामसुन्दर के पास आ बैठते हैं तथा आँखें मूँद, चुपचाप, चित्त एकाग्र करके उनकी आराधना करने लगते हैं - मानो कोई विहंगमवृत्ति के रसिक परमहंस ही हों, भला कहो तो यह कितने आश्चर्य की बात है!

अरी व्रजदेवियों! हमारे श्यामसुन्दर जब पुष्पों के कुण्डल बनाकर अपने कानों में धारण कर लेते हैं और बलराम जी के साथ गिरिराज के शिखरों पर खड़े होकर सारे जगत को हर्षित करते हुए बाँसुरी बजाने लगते हैं - बाँसुरी क्या बजाते हैं, आनन्द में भरकर उसकी ध्वनि के द्वारा सारे विश्व का आलिंगन करने लगते हैं - उस समय श्याम मेघ बाँसुरी की तान के साथ मन्द-मन्द गरजने लगता है। उसके चित्त में इस बात की शंका बनी रहती है कि कहीं मैं जोर से गर्जना कर उठूँ और वह कहीं बाँसुरी की तान के विपरीत पड़ जाय, उसमें बेसुरापन ले आये, तो मुझसे महात्मा श्रीकृष्ण का अपराध हो जायगा।

सखी! वह इतना ही नहीं करता; वह सब देखता है कि हमारे सखा घनश्याम को घाम लग रहा है, तब वह उनके ऊपर आकर छाया कर लेता है, उनका छत्र बन जाता है। अरी वीर! वह तो प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उनके ऊपर अपना जीवन ही निछावर कर देता है - नन्हीं-नन्ही फुहियों के रूप में ऐसा बरसने लगता है, मानो दिव्य पुष्पों की वर्षा कर रहा हो। कभी-कभी बादलों की ओट में छिपकर देवता-लोग भी पुष्पवर्षा कर जाया करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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