श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 23-31

दशम स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 23-31 का हिन्दी अनुवाद

प्रभो! आज ही एकमात्र सत्य हैं। क्योंकि आप सबके आत्मा जो हैं। आप पुराण पुरुष होने के कारण समस्त जन्मादि विकारों से रहित हैं। आप स्वयं प्रकाश है; इसलिये देश, काल और वस्तु - जो पर प्रकाश हैं - किसी प्रकार आपको सीमित नहीं कर सकते। आप उनके भी आदि प्रकाशक हैं। आप अविनाशी होने के कारण नित्य हैं। आपका आनन्द अखण्डित है। आपमें न तो किसी प्रकार का मल है और न अभाव। आप पूर्ण, एक हैं। समस्त उपाधियों से मुक्त होने के कारण आप अमृतस्वरूप हैं। आपका यह ऐसा स्वरूप समस्त जीवों का ही अपना स्वरूप है।

जो गुरु रूप सूर्य से तत्त्वज्ञान रूप दिव्य दृष्टि प्राप्त करके उससे आपको अपने स्वरूप के रूप में साक्षात्कार कर लेते हैं, वे इस झूठे संसार-सागर को मानो पार कर जाते हैं।[1] जो पुरुष परमात्मा को आत्मा के रूप में नहीं जानते, उन्हें उस अज्ञान के कारण ही इस नाम रूपात्मक निखिल प्रपंच की उत्पत्ति का भ्रम हो जाता है। किन्तु ज्ञान होते ही इसका आत्यन्तिक प्रलय हो जाता है। जैसे रस्सी के भ्रम के कारण ही साँप की प्रतीति होती है और भ्रम के निवृत होते ही उसकी निवृति हो जाती है।

संसार-सम्बन्धी बन्धन और उससे मोक्ष - ये दोनों ही नाम अज्ञान से कल्पित हैं। वास्तव में ये अज्ञान के ही दो नाम हैं। ये सत्य और ज्ञानस्वरूप परमात्मा से भिन्न अस्तित्व नहीं रखते। जैसे सूर्य में दिन और रात का भेद नहीं है, वैसे ही विचार करने पर अखण्ड चित्स्वरूप केवल शुद्ध आत्मतत्त्व में न बन्धन है और न तो मोक्ष। भगवन! कितने आश्चर्य की बात है कि आप हैं अपने आत्मा, पर लोग आपको पराया मानते हैं। और शरीर आदि हैं पराये, किन्तु उनको आत्मा मान बैठते हैं। और इसके बाद आपको कहीं अलग ढूंढ़ने लगते हैं।

भला, अज्ञानी जीवों का यह कितना बड़ा अज्ञान है। हे अनन्त! आप तो सबके अंतःकरण में ही विराजमान हैं। इसलिये सन्त लोग आपके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका परित्याग करते हुए अपने भीतर ही आपको ढूंढ़ते हैं। क्योंकि यद्यपि रस्सी में साँप नहीं है, फिर भी उस प्रतीयमान साँप को मिथ्या निश्चय किये बिना भला, कोई सत्पुरुष सच्ची रस्सी को कैसे जान सकता है? अपने भक्तजनों के हृदय में स्वयं स्फुरित होने वाले भगवन! आपके ज्ञान का स्वरूप और महिमा ऐसी ही है, उससे अज्ञान कल्पित जगत का नाश हो जाता है।

फिर भी जो पुरुष आपके युगल चरण कमलों का तनिक-सा भी कृपा-प्रसाद प्राप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है - वही आपकी सच्चिदानन्दमयी महिमा का तत्त्व जान सकता है। दूसरा कोई भी ज्ञान-वैराग्यादि साधन रूप अपने प्रयत्न से बहुत काल तक कितना भी अनुसन्धान करता रहे, वह आपकी महिमा का यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता।

इसलिये भगवन! मुझे इस जन्म में, दूसरे जन्म में अथवा किसी पशु-पक्षी आदि के जन्म में भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो कि मैं आपके दासों में से कोई एक दास हो जाऊँ और फिर आपके चरणकमलों की सेवा करूँ। मेरे स्वामी! जगत के बड़े-बड़े यज्ञ सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक आपको पूर्णतः तृप्त न कर सके। परन्तु आपने ब्रज की गायों और ग्वालिनों के बछड़े एवं बालक बनकर उनके स्तनों का अमृत-सा दूध बड़े उमंग से पिया है। वास्तव में उन्हीं का जीवन सफल है, वे ही अत्यन्त धन्य हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संसार-सागर के झूठा होने के कारण इससे पार जाना भी अविचार-दशा की दृष्टि से ही है

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