श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 32 श्लोक 17-32

तृतीय स्कन्ध: द्वात्रिंश अध्याय

link= श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 32 श्लोक 1-16

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वात्रिंश अध्यायः श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद


उनकी बुद्धि रजोगुण की अधिकता के कारण कुण्ठित रहती है, हृदय में कामनाओं का जाल फैला रहता है और इन्द्रियाँ उनके वश में नहीं होतीं; बस, अपने घरों में ही आसक्त होकर वे नित्यप्रति पितरों की पूजा में लगे रहते हैं। ये लोग अर्थ, धर्म और काम के ही परायण होते हैं; इसलिये जिनके महान् पराक्रम अत्यन्त कीर्तनिय हैं, उन भवभयहारी श्रीमधुसूदन भगवान् की कथा-वार्ताओं से तो ये विमुख ही रहते हैं।

हाय! विष्ठाभोगी कूकर-सूकर आदि जीवों के विष्ठा चाहने के समान जो मनुष्य भगवत्कथामृत को छोड़कर निन्दित विषय-वार्ताओं को सुनते हैं-वे तो अवश्य ही विधाता के मारे हुए हैं, उनका बड़ा ही मन्द भाग्य है। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक सब संस्कारों को विधिपूर्वक करने वाले ये सकामकर्मी सूर्य से दक्षिण ओर के पितृयान या धूममार्ग से पित्रीश्वर अर्यमा के लोक में जाते हैं और फिर अपनी ही सन्तति के वंश में उत्पन्न होते हैं।

माताजी! पितृलोक को भोग लेने पर जब उनके पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब देवता लोग उन्हें वहाँ के ऐश्वर्य से च्युत कर देते हैं और फिर उन्हें विवश होकर तुरन्त ही इस लोक में गिरना पड़ता है। इसलिये माताजी! जिनके चरणकमल सदा भजने योग्य हैं, उन भगवान् का तुम उन्हीं के गुणों का आश्रय लेने वाली भक्ति के द्वारा सब प्रकार से (मन, वाणी और शरीर से) भजन करो। भगवान् वासुदेव के प्रति किया हुआ भक्तियोग तुरंत ही संसार से वैराग्य और ब्रह्म साक्षात्काररूप ज्ञान की प्राप्ति करा देता है। वस्तुतः सभी विषय भगवद् रूप होने के कारण समान हैं। अतः जब इन्द्रियों की वृत्तियों के द्वारा भी भगवद्भक्त का चित्त उनमें प्रिय-अप्रियरूप विषता का अनुभव नहीं करता-सर्वत्र भगवान् का ही दर्शन करता है-उसी समय वह संगरहित, सब में समान रूप से स्थित, त्याग और ग्रहण करने योग्य, दोष और गुणों से रहित, अपनी महिमा में आरूढ़ अपने आत्मा का ब्रह्मरूप से साक्षात्कार करता है। वही ज्ञानस्वरूप है, वही परब्रह्म है, वही परमात्मा है, वही ईश्वर है, वही पुरुष है; वही एक भगवान् स्वयं जीव, शरीर, विषय, इन्द्रियों आदि अनेक रूपों में प्रतीत होता है।

सम्पूर्ण संसार में आसक्ति का अभाव हो जाना-बस, यही योगियों के सब प्रकार के योग साधन का एकमात्र अभीष्ट फल है। ब्रह्म एक है, ज्ञानस्वरूप और निर्गुण है, तो भी वह बाह्यवृत्तियों वाली इन्द्रियों के द्वारा भ्रान्तिवश शब्दादि धर्मों वाले विभिन्न पदार्थों के रूप में भास रहा है। जिस प्रकार एक ही परब्रह्म महत्तत्त्व, वैकारिक, राजस और तामस-तीन प्रकार का अहंकार, पंचमहाभूत एवं ग्यारह इन्द्रियरूप बन गया है और फिर वही स्वयंप्रकाश इनके संयोग से जीव कहलाया, उसी प्रकार उस जीव का शरीररूप यह ब्रह्माण्ड भी वस्तुतः ब्रह्म ही है, क्योंकि ब्रह्म से ही इसकी उत्पत्ति हुई है। किन्तु इसे ब्रह्मरूप वही देख सकता है, जो श्रद्धा, भक्ति और वैराग्य तथा निरन्तर के योगाभ्यास के द्वारा एकाग्रचित्त और असंग बुद्धि हो गया है।

पूजनीय माताजी! मैंने तुम्हें यह ब्रह्म साक्षात्कार का साधनरूप ज्ञान सुनाया, इसके द्वारा प्रकृति और पुरुष के यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाता है। देवि! निर्गुणब्रह्म-विषयक ज्ञानयोग और मेरे प्रति किया हुआ भक्तियोग-इन दोनों का फल एक ही है। उसे ही भगवान् कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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