श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 30 श्लोक 17-34

तृतीय स्कन्ध: त्रिंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रिंश अध्यायः श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद


यह अपने शोकातुर बन्धु-बान्धवों से घिरा हुआ पड़ा रहता है और मृत्युपाश के वशीभूत हो जाने से उनके बुलाने पर भी नहीं बोल सकता। इस प्रकार जो मूढ़ पुरुष इन्द्रियों को न जीतकर निरन्तर कुटुम्ब-पोषण में ही लगा रहता है, वह रोते हुए स्वजनों के बीच अत्यन्त वेदना से अचेत होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। इस अवसर पर उसे लेने के लिये अति भयंकर और रोषयुक्त नेत्रों वाले जो दो यमदूत आते हैं, उन्हें देखकर वह भय के कारण मल-मूत्र कर देता है। वे यमदूत उसे यातनादेह में डाल देते हैं और फिर जिस प्रकार सिपाही किसी अपराधी को ले जाते हैं, उसी प्रकार उसके गले में रस्सी बाँधकर बलात् यमलोक की लंबी यात्रा में उसे ले जाते हैं।

उनकी घुड़कियों से उसका हृदय फटने और शरीर काँपने लगता है, मार्ग में उसे कुत्ते नोचते हैं। उस समय अपने पापों को याद करके वह व्याकुल हो उठता है। भूख-प्यास उसे बेचैन कर देती है तथा घाम, दावानल और लूओं से वह तप जाता है। ऐसी अवस्था में जल और विश्रामस्थान से रहित उस तप्तबालुकामय मार्ग में जब उसे एक पग आगे बढ़ने की ही शक्ति नहीं रहती, यमदूत उसकी पीठ पर कोड़े बरसाते हैं, तब बड़े कष्ट से उसे चलना ही पड़ता है। वह जहाँ-तहाँ थककर गिर जाता है, मूर्च्छा आ जाती है, चेतना आने पर फिर उठता है। इस प्रकार अति दुःखमय अँधेरे मार्ग से अत्यन्त क्रूर यमदूत उसे शीघ्रता से यमपुरी को ले जाते हैं। यमलोक का मार्ग निन्यानबे हजार योजन है। इतने लम्बे मार्ग को दो-ही-तीन मुहूर्त में तय करके वह नरक में तरह-तरह की यातनाएँ भोगता है। वहाँ उसके शरीर को धधकती लकड़ियों आदि के बीच में डालकर जलाया जाता है, कहीं स्वयं और दूसरों के द्वारा काट-काटकर उसे अपना ही मांस खिलाया जाता है। यमपुरी के कुत्तों अथवा गिद्धों द्वारा जीते-जी उसकी आँतें खींची जाती हैं। साँप, बिच्छू और डांस आदि डसने वाले तथा डंक मारने वाले जीवों से शरीर को पीड़ा पहुँचायी जाती है। शरीर को काटकर टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं। उसे हाथियों से चिरवाया जाता है, पर्वत शिखरों से गिराया जाता है अथवा जल या गढ़े में डालकर बन्द कर दिया जाता है। ये सब यातनाएँ तथा इसी प्रकार तामिस्त्र, अन्धतामिस्त्र एवं रौरव आदि नरकों की और भी अनेकों यन्त्रणाएँ, स्त्री हो या पुरुष, उस जीव को पारस्परिक संसर्ग से होने वाले पाप के कारण भोगनी ही पड़ती हैं।

माताजी! कुछ लोगों का कहना है कि स्वर्ग और नरक तो इसी लोक में हैं, क्योंकि जो नारकी यातनाएँ हैं, वे यहाँ भी देखी जाती हैं। इस प्रकार अनेक कष्ट भोगकर अपने कुटुम्ब का ही पालन करने वाला अथवा केवल अपना ही पेट भरने वाला पुरुष उन कुटुम्ब और शरीर-दोनों को यहीं छोड़कर मरने के बाद अपने किये हुए पापों का ऐसा फल भोगता है। अपने इस शरीर को यही छोड़कर प्राणियों से द्रोह करके एकत्रित किये हुए पापरूप पाथेय को साथ लेकर वह अकेला ही नरक में जाता है। मनुष्य अपन कुटुम्ब का पेट पालने में जो अन्याय करता है, उसका दैवविहित कुफल वह नरक में जाकर भोगता है। उस समय वह ऐसा व्याकुल होता है, मानो उसका सर्वस्व लुट गया हो। जो पुरुष निरी पाप की कमाई से ही अपने परिवार का पालन करने में व्यस्त रहता है, वह अन्धतामिस्त्र नरक में जाता है-जो नरकों में चरम सीमा का कष्टप्रद स्थान है। मनुष्य-जन्म मिलने के पूर्व जितनी भी यातनाएँ हैं तथा शूकर-कुकरादि योनियों के जितने कष्ट हैं, उन सबको क्रम से भोगकर शुद्ध हो जाने पर वह फिर मनुष्य योनि में जन्म लेता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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