श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 28 श्लोक 17-28

तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद


उनकी अति सुन्दर किशोर अवस्था है, वे भक्तों पर कृपा करने के लिये आतुर हो रहे हैं। बड़ी मनोहर झाँकी है। भगवान् सदा सम्पूर्ण लोकों से वन्दित हैं। उनका पवित्र यश परम कीर्तनीय है और वे राजा बलि आदि परम यशस्वियों के भी यश को बढ़ाने वाले हैं। इस प्रकार श्रीनारायणदेव का सम्पूर्ण अंगों के सहित तब तक ध्यान करे, जब तक चित्त वहाँ से हटे नहीं। भगवान् की लीलाएँ बड़ी दर्शनीय हैं, अतः अपनी रुचि के अनुसार खड़े हुए, चलते हुए, बैठे हुए, पौढ़े हुए अथवा अन्तर्यामीरूप से स्थित हुए उनके स्वरूप का विशुद्ध भावयुक्त चित्त से चिन्तन करे। इस प्रकार योगी जब यह अच्छी तरह देख ले कि भगवद्विग्रह में चित्त की स्थिति हो गयी, तब वह उनके समस्त अंगों में लगे हुए चित्त को विशेष रूप से एक-एक अंग में लगावे।

भगवान् के चरणकमलों का ध्यान करना चाहिये। वे वज्र, अंकुश, ध्वजा और कमल के मंगलमय चिह्नों से युक्त हैं तथा अपने उभरे हुए लाल-लाल शोभामय नखचन्द्रमण्डल की चन्द्रिका से ध्यान करने वालों के हृदय के अज्ञानरूप घोर अन्धकार को दूर कर देते हैं। इन्हीं की धोवन से नदियों में श्रेष्ठ श्रीगंगा जी प्रकट हुई थीं, जिनके पवित्र मंगलरूप श्रीमहादेव जी और भी अधिक मंगलमय हो गये। ये अपना ध्यान करने वालों के पापरूप पर्वतों पर छोड़े हुए इन्द्र के वज्र के समान हैं। भगवान् के इन चरणकमलों का चिरकाल तक चिन्तन करे। भवभयहारी अजन्मा श्रीहरि की दोनों पिंडलियों एवं घुटनों का ध्यान करे, जिनको विश्वविधाता ब्रह्मा जी की माता सुरवन्दिता कमललोचना लक्ष्मी जी अपनी जाँघों पर रखकर अपने कान्तिमान् करकिसलयों की कान्ति से लाड़ लड़ाती रहती हैं।

भगवान् की जाँघों का ध्यान करे, जो अलसी के फूल के समन नीलवर्ण और बल की निधि हैं तथा गरुड़ जी की पीठ पर शोभायमान हैं। भगवान् के नितम्बबिम्ब का ध्यान करे, जो एड़ी तक लटके हुए पीताम्बर से ढका हुआ है और उस पीताम्बर के ऊपर पहली हुई सुवर्णमयी करधनी की लड़ियों को आलिंगन कर रहा है। सम्पूर्ण लोकों के आश्रयस्थान भगवान् के उदर देश में स्थित नाभि सरोवर का ध्यान करे; इसी में से ब्रह्मा जी का आधारभूत सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ है। फिर प्रभु के श्रेष्ठ मरकतमणि सदृश दोनों स्तनों का चिन्तन करे, जो वक्षःस्थल पर पड़े हुए शुभ्र हारों की किरणों से गौरवर्ण जान पड़ते हैं। इसके पश्चात् पुरुषोत्तम भगवान् के वक्षःस्थल का ध्यान करे, जो महालक्ष्मी का निवासस्थान और लोगों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देने वाला है।

फिर सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय भगवान् के गले का चिन्तन करे, जो मानो कौस्तुभ मणि को भी सुशोभित करने के लिये ही उसे धारण करता है। समस्त लोकपालों की आश्रयभूता भगवान् की चारों भुजाओं का ध्यान करे, जिनमें धारण किये हुए कंकणादि आभूषण समुद्र मन्थन के समय मन्दराचल की रगड़ से और भी उजले हो गये हैं। इसी प्रकार जिसके तेज को सहन नहीं किया जा सकता, उस सहस्र धारों वाले सुदर्शन चक्र का तथा उनके करकमल के राजहंस के समान विराजमान शंख का चिन्तन करे। फिर विपक्षी वीरों के रुधिर से सनी हुई प्रभु की प्यारी कौमोदकी गदा का, भौरों के शब्द से गुंजायमान वनमाला का और उनके कण्ठ में सुशोभित सम्पूर्ण जीवों के निर्मल तत्त्वरूप कौस्तुभ मणि का ध्यान करे।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आत्मानमस्य जगतो निर्लेपमगुणामलम्। विभर्ति कौस्तुभमणि स्वरूपं भगवान् हरिः ॥‘ अर्थात् इस जगत् की निर्लेष, निर्गुण, निर्मल तथा स्वरूपभूत आत्मा को कौस्तुभ मणि के रूप में भगवान् धारण करते हैं।

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