तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 45-57 का हिन्दी अनुवाद
आत्मज्ञानी कर्दम जी सब प्रकार के संकल्पों को जानते थे; अतः देवहूति को सन्तान प्राप्ति के लिये उत्सुक देख तथा भगवान् के आदेश को स्मरणकर उन्होंने अपने स्वरूप के नौ विभाग किये तथा कन्याओं की उत्पत्ति के लिये एकाग्रचित्त से अर्धांगरूप से अपनी पत्नी की भावना करते हुए उसके गर्भ में वीर्य स्थापित किया। इससे देवहूति के एक ही साथ नौ कन्याएँ पैदा हुई। वे सभी सर्वांग सुन्दरी थीं और उनके शरीर से लाल कमल की-सी सुगन्ध निकलती थी। इसी समय शुद्ध स्वभाव वाली सती देवहूति ने देखा कि पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार उसके पतिदेव संन्यासश्रम ग्रहण करके वन को जाना चाहते हैं तो उसने अपने आँसुओं को रोककर ऊपर से मुसकराते हुए व्याकुल एवं संतप्त हृदय से धीरे-धीरे अति मधुर वाणी में कहा। उस समय वह सिर नीचा किये हुए अपने नखमणिमण्डित चरणकमल से पृथ्वी को कुरेद रही थी। देवहूति ने कहा- भगवन्! आपने जो कुछ प्रतिज्ञा की थी, वह सब तो पूर्णतः निभा दी; तो भी मैं आपकी शरणागत हूँ, अतः आप मुझे अभयदान और दीजिये। ब्रह्मन्! इन कन्याओं के लिये योग्य वर खोजने पड़ेंगे और आपके वन को चले जाने के बाद मेरे जन्म-मरणरूप शोक को दूर करने के लिये भी कोई होना चाहिये। प्रभो! अब तक परमात्मा से विमुख रहकर मेरा जो समय इन्द्रियसुख भोगने में बीता है, वह तो निरर्थक ही गया। आपके परम प्रभाव को न जानने के कारण ही मैंने इन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहकर आपसे अनुराग किया तथापि यह भी मेरे संसार-भय को दूर करने वाला ही होना चाहिये। अज्ञानवश असत्पुरुषों के साथ किया हुआ जो संग संसार-बन्धन का कारण होता है, वही सत्पुरुषों के साथ किये जाने पर असंगता प्रदान करता है। संसार में जिस पुरुष के कर्मों से न तो धर्म का सम्पादन होता है, न वैराग्य उत्पन्न होता है और न भगवान् की सेवा ही सम्पन्न होती है, वह पुरुष जीते ही मुर्दे के समान है। अवश्य ही मैं भगवान् की माया से बहुत ठगी गयी, जो आप-जैसे मुक्तिदाता पतिदेव को पाकर भी मैंने संसार-बन्धन से छूटने की इच्छा नहीं की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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