श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 16-31

तृतीय स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद


विदुर जी! जैसे हाथी पर पुष्पमाला की चोट का कोई असर नहीं होता, उसी प्रकार उसके इस प्रकार घूँसा मारने से भगवान् आदिवराह तनिक भी टस-से-मस नहीं हुए। तब वह महामायावी दैत्य मायापति श्रीहरि पर अनेक प्रकार की मायाओं का प्रयोग करने लगा, जिन्हें देखकर सभी प्रजा बहुत डर गयी और समझने लगी कि अब संसार का प्रलय होने वाला है। बड़ी प्रचण्ड आँधी चलने लगी, जिसके कारण धूल से सब ओर अन्धकार छा गया। सब ओर से पत्थरों की वर्षा होने लगी, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो किसी क्षेपण यन्त्र (गुलेल) से फेंके जा रहे हों। बिजली की चमचमाहट और कड़क के साथ बादलों के घिर आने से आकाश में सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह छिप गये तथा उनसे निरन्तर पीब, केश, रुधिर, विष्ठा, मूत्र और हड्डियों की वर्षा होने लगी।

विदुर जी! ऐसे-ऐसे पहाड़ दिखायी देने लगे, जो तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र बरसा रहे थे। हाथ में त्रिशूल लिये बाल खोले नंगी राक्षसियाँ दीखने लगीं। बहुत-से पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियों पर चढ़े सनिकों के साथ आततायी यक्ष-राक्षसों का ‘मारो-मारो, काटो-काटो’ ऐसा अत्यन्त क्रूर और हिंसामय कोलाहल सुनायी देने लगा। इस प्रकार प्रकट हुए उस आसुरी माया-जाल का नाश करने के लिये यज्ञमूर्ति भगवान् वराह ने अपना प्रिय सुदर्शन चक्र छोड़ा। उस समय अपने पति का कथन स्मरण हो आने से दिति का हृदय सहसा काँप उठा और उसके स्तनों से रक्त बहने लगा। अपना माया-जाल नष्ट हो जाने पर वह दैत्य फिर भगवान् के पास आया। उसने उन्हें क्रोध से दबाकर चूर-चूर करने की इच्छा से भुजाओं में भर लिया, किंतु देखा कि वे तो बाहर ही खड़े हैं। अब वह भगवान् को वज्र के समान कठोर मुक्कों से मारने लगा। तब इन्द्र ने जैसे वृत्रासुर पर प्रहार किया था, उसी प्रकार भगवान् ने उसकी कनपटी पर एक तमाचा मारा।

विश्व विजयी भगवान् ने यद्यपि बड़ी उपेक्षा से तमाचा मारा था, तो भी उसकी चोट से हिरण्याक्ष का शरीर घूमने लगा, उसके नेत्र बाहर निकल आये तथा हाथ-पैर और बाल छिन्न-भिन्न हो गये और वह निष्प्राण होकर आँधी से उखड़े हुए विशाल वृक्ष के समान पृथ्वी पर गिर पड़ा। हिरण्याक्ष का तेज अब भी मलिन नहीं हुआ था। उस कराल दाढ़ों वाले दैत्य को दाँतों से होठ चबाते पृथ्वी पर पड़ा देख वहाँ युद्ध देखने के लिये आये हुए ब्रह्मादि देवता उसकी प्रशंसा करने लगे कि ‘अहो! ऐसी अलभ्य मृत्यु किसको मिल सकती है। अपनी मिथ्या उपाधि से छूटने के लिये जिनका योगिजन समाधियोग के द्वारा एकान्त में ध्यान करते हैं, उन्हीं के चरण-प्रहार उनका मुख देखते-देखते इस दैत्यराज ने अपना शरीर त्यागा। ये हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु भगवान् के ही पार्षद हैं। इन्हें शापवश यह अधोगति प्राप्त हुई है। अब कुछ जन्मों में ये फिर अपने स्थान पर पहुँच जायँगे’।

देवता लोग कहने लगे- 'प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है। आप सम्पूर्ण यज्ञों का विस्तार करने वाले हैं तथा संसार की स्थिति के लिये शुद्धसत्त्वमय मंगलविग्रह प्रकट करते हैं। बड़े आनन्द की बात है कि संसार को कष्ट देने वाला यह दुष्ट दैत्य मारा गया। अब आपके चरणों की भक्ति के प्रभाव से हमें भी सुख-शान्ति मिल गयी।'

मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इस प्रकार महापराक्रमी हिरण्याक्ष का वध करके भगवान् आदिवराह अपने अखण्ड आनन्दमय धाम को पधार गये। उस समय ब्रह्मादि देवता उनकी स्तुति कर रहे थे।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः