श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 18-31

तृतीय स्कन्ध: सप्तदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद


वे दोनों यमज थे। प्रजापति कश्यप जी ने उनका नामकरण किया। उनमें से जो उनके वीर्य से दिति के गर्भ में पहले स्थापित हुआ था, उसका नाम हिरण्यकशिपु रखा और जो दिति के उदर से पहले निकला, वह हिरण्याक्ष के नाम से विख्यात हुआ। हिरण्यकशिपु ब्रह्मा जी के वर से मृत्यु के भय से मुक्त हो जाने के कारण बड़ा उद्धत हो गया था। उसने अपनी भुजाओं के बल से लोकपालों के सहित तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया। वह अपने छोटे भाई हिरण्याक्ष को बहुत चाहता था और वह भी सदा अपने बड़े भाई का प्रिय कार्य करता रहता था।

एक दिन वह हिरण्याक्ष हाथ में गदा लिये युद्ध का अवसर ढूँढता हुआ स्वर्गलोक में जा पहुँचा। उसका वेग बड़ा असह्य था। उसके पैरों में सोने के नूपुरों की झनकार हो रही थी, गले में विषयसूचक माला धारण की हुई थी और कंधे पर विशाल गदा रखी हुई थी। उसके मनोबल, शारीरिक बल तथा ब्रह्मा जी के वर ने उसे मतवाला कर रखा था; इसलिये वह सर्वथा निरंकुश और निर्भय हो रहा था। उसे देखकर देवता लोग डर के मारे वैसे ही जहाँ-तहाँ छिप गये, जैसे गरुड़ के डर से साँप छिप जाते हैं।

जब दैत्यराज हिरण्याक्ष ने देखा कि मेरे तेज के सामने बड़े-बड़े गर्वीले इन्द्रादि देवता भी छिप गये हैं, तब उन्हें अपने सामने न देखकर वह बार-बार भयंकर गर्जना करने लगा। फिर वह महाबली दैत्य वहाँ से लौटकर जलक्रीड़ा करने के लिये मतवाले हाथी के समान गहरे समुद्र में घुस गया, जिसमें लहरों की बड़ी भयंकर गर्जना हो रही थी। ज्यों ही उसने समुद्र में पैर रखा कि डर के मारे वरुण के सैनिक जलचर जीव हकबका गये और किसी प्रकार की छेड़छाड़ न करने पर भी वे उसकी धाक से ही घबराकर बहुत दूर भाग गये। महाबली हिरण्याक्ष अनेक वर्षों तक समुद्र में ही घूमता और सामने किसी प्रतिपक्षी को न पाकर वह बार-बार वायु वेग से उठी हुई उसकी प्रचण्ड तरंगों पर ही अपनी लोहमयी गदा को आजमाता रहा।

इस प्रकार घूमते-घूमते वह वरुण की राजधानी विभावरीपुरी में जा पहुँचा। वहाँ पाताल लोक के स्वामी, जलचरों के अधिपति वरुण जी को देखकर उसने उनकी हँसी उड़ाते हुए नीच मनुष्य की भाँति प्रणाम किया और कुछ मुसकराते हुए व्यंग से कहा- ‘महाराज! मुझे युद्ध की भिक्षा दीजिये। प्रभो! आप तो लोक-पालक, राजा और बड़े कीर्तिशाली हैं। जो लोग अपने को बाँका वीर समझते थे, उनके वीर्यमद को भी आप चूर्ण कर चुके हैं और पहले एक बार आपने संसार के समस्त दैत्य-दानवों को जीतकर राजसूय यज्ञ भी किया था’। उस मदोन्मत्त शत्रु के इस प्रकार बहुत उपहास करने से भगवान् वरुण को क्रोध तो बहुत आया, किंतु अपने बुद्धिबल से वे उसे पी गये और बदले में उससे कहने लगे- ‘भाई! हमें तो अब युद्धादि का कोई चाव नहीं रह गया है। भगवान् पुराणपुरुष के सिवा हमें और कोई ऐसा दीखता भी नहीं जो तुम-जैसे रणकुशल वीर को युद्ध में सन्तुष्ट कर सके। दैत्यराज! तुम उन्हीं के पास जाओ, वे ही तुम्हारी कामना पूरी करेंगे। तुम-जैसे वीर उन्हीं का गुणगान किया करते हैं। वे बड़े वीर हैं। उनके पास पहुँचते ही तुम्हारी सारी शेखी पूरी हो जायेगी और तुम कुत्तों से घिरकर वीर शय्या पर शयन करोगे। वे तुम-जैसे दुष्टों को मारने और सत्पुरुषों पर कृपा करने के लिये अनेक प्रकार के रूप धारण किया करते हैं’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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