श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 33-50

तृतीय स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 33-50 का हिन्दी अनुवाद


दिति बोली- ब्रह्मन्! भगवान् रुद्र भूतों के स्वामी हैं, मैंने उनका अपराध किया है; किन्तु वे भूतश्रेष्ठ मेरे इस गर्भ को नष्ट न करें। मैं भक्तवाञ्छाकल्पतरु, उग्र एवं रुद्ररूप महादेव को नमस्कार करती हूँ। वे सत्पुरुषों के लिये कल्याणकारी एवं दण्ड देने के भाव से रहित हैं, किन्तु दुष्टों के लिये क्रोधमूर्ति दण्डपाणि हैं। हम स्त्रियों पर तो व्याध भी दया करते हैं, फिर वे सतीपति तो मेरे बहनोई और परम कृपालु हैं; अतः वे मुझ पर प्रसन्न हों।

श्रीमैत्रेयजी ने कहा- विदुर जी! प्रजापति कश्यप ने सायंकालीन सन्ध्या-वन्दनादि कर्म से निवृत्त होने पर देखा कि दिति थर-थर काँपती हुई अपनी सन्तान की लौकिक और पारलौकिक उन्नति के लिये प्रार्थना कर रही है। तब उन्होंने उससे कहा।

कश्यप जी ने कहा- तुम्हारा चित्त कामवासना से मलिन था, वह समय भी ठीक नहीं था और तुमने मेरी बात भी नहीं मानी तथा देवताओं की भी अवहेलना की। अमंगलमयी चण्डी! तुम्हारी कोख से दो बड़े ही अमंगलमय और अधम पुत्र उत्पन्न होंगे। वे बार-बार सम्पूर्ण लोक और लोकपालों को अपने अत्याचारों से रुलायेंगे। जब उनके हाथ से बहुत-से निरपराध और दीन प्राणी मारे जाने लगेंगे, स्त्रियों पर अत्याचार होने लगेंगे और महात्माओं को क्षुब्ध किया जाने लगेगा, उस समय सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करने वाले श्रीजगदीश्वर कुपित होकर अवतार लेंगे और इन्द्र जैसे पर्वतों का दमन करता है, उसी प्रकार उनका वध करेंगे।

दिति ने कहा- प्रभो! यही मैं भी चाहती हूँ कि यदि मेरे पुत्रों का वध हो तो वह साक्षात् भगवान् चक्रपाणि के हाथ से ही हो, कुपित ब्राह्मणों के शापादि से न हो। जो जीव ब्राह्मणों के शाप से दग्ध अथवा प्राणियों को भय देने वाला होता है, वह किसी भी योनि में जाये-उस पर नारकी जीव भी दया नहीं करते।

कश्यप जी ने कहा- देवि! तुमने अपने किये पर शोक और पश्चाताप प्रकट किया है, तुम्हें शीघ्र ही उचित-अनुचित का विचार भी हो गया तथा भगवान् विष्णु, शिव और मेरे प्रति भी तुम्हारा बहुत आदर जान पड़ता है; इसलिये तुम्हारे एक पुत्र के चार पुत्रों में से एक ऐसा होगा, जिसका सत्पुरुष भी मान करेंगे और जिसके पवित्र यश को भक्तजन भगवान् के गुणों के साथ गायेंगे। जिस प्रकार खोटे सोने को बार-बार तपाकर शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार साधुजन उसके स्वभाव का अनुकरण करने के लिये निर्वेता आदि उपायों से अपने अन्तःकरण को शुद्ध करेंगे। जिनकी कृपा से उन्हीं का स्वरूपभूत यह जगत् आनन्दित होता है, वे स्वयंप्रकाश भगवान् भी उसकी अनन्यभक्ति से सन्तुष्ट हो जायेंगे।

दिति! वह बालक बड़ा ही भगवद्भक्त, उदारहृदय, प्रभावशाली और महान् पुरुषों का भी पूज्य होगा तथा प्रौढ़ भक्तिभाव से विशुद्ध और भावान्वित हुए अन्तःकरण में श्रीभगवान् को स्थापित करके देहाभिमान को त्याग देगा। वह विषयों में अनासक्त, शीलवान्, गुणों का भंडार तथा दूसरों की समृद्धि में सुख और दुःख में दुःख मानने वाला होगा। उसका कोई शत्रु न होगा तथा चन्द्रमा जैसे ग्रीष्म ऋतु के ताप को हर लेता है, वैसे ही वह संसार के शोक को शान्त करने वाला होगा। जो इस संसार के बाहर-भीतर सब ओर विराजमान हैं, अपने भक्तों के इच्छानुसार समय-समय पर मंगलविग्रह प्रकट करते हैं और लक्ष्मीरूप लावण्यमूर्ति ललना की भी शोभा बढ़ाने वाले हैं तथा जिनका मुखमण्डल झिलमिलाते हुए कुण्डलों से सुशोभित है-उन परम पवित्र कमलनयन श्रीहरि का तुम्हारे पौत्र को प्रत्यक्ष दर्शन होगा।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! दिति ने जब सुना कि मेरा पौत्र भगवान् का भक्त होगा, तब उसे बड़ा आनन्द हुआ तथा यह जानकर कि मेरे पुत्र साक्षात् श्रीहरि के हाथ से मारे जायेंगे, उसे और भी अधिक उत्साह हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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