श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 17-29

तृतीय स्कन्ध: नवम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद


छठी सृष्टि अविद्या की है। इसमें तामिस्र, अन्ध्तामिस्र, तम, मोह और महामोह- ये पाँच गाँठें हैं। यह जीवों की बुद्धि का आवरण और विक्षेप करने वाली है। ये छः प्राकृत सृष्टियाँ हैं, अब वैकृत सृष्टियों का भी विवरण सुनो। जो भगवान् अपना चिन्तन करने वालों के समस्त दुःखों को हर लेते हैं, यह सारी लीला उन्हीं श्रीहरि की है। वे ही ब्रह्मा के रूप में रजोगुण को स्वीकार करके जगत् की रचना करते हैं। छः प्रकार की प्राकृत सृष्टियों के बाद सातवीं प्रधान वैकृत सृष्टि इन छः प्रकार के स्थानवर वृक्षों की होती है। वनस्पति[1], ओषधि[2], लता[3], त्वक्सार[4], वीरुध[5] और द्रुम[6] इनका संचार नीचे (जड़) से ऊपर की ओर होता है, इनमें प्रायः ज्ञानशक्ति प्रकट नहीं रहती, ये भीतर-ही-भीतर केवल स्पर्श का अनुभव करते हैं तथा इनमें से प्रत्येक में कोई विशेष गुण रहता है।

आठवीं सृष्टि तिर्यग् योनियों (पशु-पक्षियों) की है। वह अट्ठाईस प्रकार की मानी जाती है। इन्हें काल का ज्ञान नहीं होता, तमोगुण कि अधिकता के कारण ये केवल खाना-पीना, मैथुन करना, सोना आदि ही जानते हैं, इन्हें सूँघने मात्र से वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। इनके हृदय में विचार शक्ति या दुरदर्शिता नहीं होती।

साधुश्रेष्ठ! इन तिर्यकों में गौ, बकरा, भैंसा, कृष्ण-मृग, सूअर, नीलगाय, रुरु नाम का मृग, भेंड़ और ऊँट- ये द्विशफ (दो खुरों वाले) पशु कहलाते हैं। गधा, घोड़ा, खच्चर, गौरमृग, शरफ और चमरी- ये एकशफ (एक खुर वाले) हैं। अब पाँच नख वाले पशु-पक्षियों के नाम सुनो। कुत्ता, गीदड़, भेड़िया, बाघ, बिलाव, खरगोश, साही, सिंह, बन्दर, हाथी, कछुआ, गोह और मगर आदि (पशु) हैं। कंक (बगुला), गिद्ध, बटेर, बाज, भास, भल्लूक, मोर, हंस, सारस, चकवा, कौआ और उल्लू आदि उड़ने वाले जीव पक्षी कहलाते हैं।

विदुर जी! नवीं सृष्टि मनुष्यों की है। यह एक ही प्रकार की है। इसके आहार का प्रवाह ऊपर (मुँह) से नीचे की ओर होता है। मनुष्य रजोगुण प्रधान, कर्म परायण और दुःखरूप विषयों में ही सुख मानने वाले होते हैं। स्थावर, पशु-पक्षी और मनुष्य- ये तीनों प्रकार की सृष्टियाँ तथा आगे कहा जाने वाला देवसर्ग वैकृत सृष्टि है तथा जो महत्तत्त्वादीरूप वैकारिक देवसर्ग है, उसकी गणना पहले प्राकृत सृष्टि में की जा चुकी है। इनके अतिरिक्त सनत्कुमार आदि ऋषियों का जो कौमारसर्ग है, वह प्राकृत-वैकृत दोनों प्रकार है। देवता, पितर, असुर, गन्धर्व-अप्सरा, यक्ष-राक्षस, सिद्ध-चारण-विद्याधर, भूत-प्रेत-पिशाच और किन्नर-किम्पुरुष-अश्वमुख आदि भेद से देव सृष्टि आठ प्रकार की है। विदुर जी! इस प्रकार जगत्कर्ता श्रीब्रह्मा जी की रची हुई यह दस प्रकार की सृष्टि मैंने तुमसे कही। अब आगे मैं वंश और मन्वन्तरादि का वर्णन करूँगा। इस प्रकार सृष्टि करने वाले सत्य संकल्प भगवान् हरि ही ब्रह्मा के रूप से प्रत्येक कल्प के आदि में रजोगुण से व्याप्त होकर स्वयं ही जगत् के रूप में अपनी ही रचना करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जो बिना मौर आये ही फलते हैं, जैसे गूलर, बड़, पीपल आदि।
  2. जो फलों के पक जाने पर नष्ट हो जाते हैं, जैसे धान, गेंहूँ, चना आदि।
  3. जो किसी का आश्रय लेकर बढ़ते हैं, जैसे ब्राह्मी, गिलोय आदि।
  4. जिनकी छाल बहुत कठोर होती है, जैसे बाँस आदि।
  5. जो लता पृथ्वी पर ही फैलती है, किन्तु कठोर होने से ऊपर की ओर नहीं चढ़ती- जैसे खरबूजा, तरबूजा आदि।
  6. जिनमें पहले फूल आकर फिर उन फूलों के स्थान में ही फल लगते हैं, जैसे आम, जामुन आदि।

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