श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 11-26

चतुर्थ स्कन्ध: पंचम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 11-26 का हिन्दी अनुवाद


उस समय उनका तेज असह्य होता है, वे अपनी भौंहें टेढ़ी करने के कारण बड़े दुर्धर्ष जान पड़ते हैं और उनकी विकराल दाढ़ों से तारागण अस्त्र-व्यस्त हो जाते हैं। उन क्रोध में भरे हुए भगवान् शंकर को बार-बार कुपित करने वाला पुरुष साक्षात् विधाता ही क्यों न हो-क्या कभी उसका कल्याण हो सकता है? जो लोग महात्मा दक्ष के यज्ञ में बैठे थे, वे भय के कारण एक-दूसरे की ओर कातर दृष्टि से निहारते हुए ऐसी ही तरह-तरह की बातें कर रहे थे कि इतने में ही आकाश और पृथ्वी में सब ओर सहस्रों भयंकर उत्पात होने लगे।

विदुर जी! इसी समय दौड़कर आये हुए रुद्र सेवकों ने उस महान् यज्ञमण्डप को सब ओर से घेर लिया। वे सब तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। उनमें कोई बौने, कोई भूरे रंग के, कोई पीले और कोई मगर के समान पेट और मुख वाले थे। उनमें से किन्हीं ने प्राग्वंश (यज्ञशाला के पूर्व और पश्चिम के खंभों के बीच के आड़े रखे हुए डंडे) को तोड़ डाला, किन्हीं ने यज्ञशाला के पश्चिम की ओर स्थित पत्नीशाला को नष्ट कर दिया, किन्हीं ने यज्ञशाला के सामने का सभामण्डप और मण्डप के आगे उत्तर की ओर स्थित आग्नीध्रशाला को तोड़ दिया, किन्हीं ने यजमानगृह और पाकशाला को तहस-नहस कर डाला। किन्ही ने यज्ञ के पात्र फोड़ दिये, किन्हीं ने अग्नियों को बुझा दिया, किन्हीं ने यज्ञकुण्डों में पेशाब कर दिया और किन्हीं ने वेदी की सीमा के सूत्रों को तोड़ डाला। कोई-कोई मुनियों को तंग करने लगे, कोई स्त्रियों को डराने-धमकाने लगे और किन्हीं ने अपने पास होकर भागते हुए देवताओं को पकड़ लिया। मणिमान् ने भृगु ऋषि को बाँध लिया, वीरभद्र ने प्रजापति दक्ष को कैद कर लिया तथा चण्डीश ने पूषा को और नंदीश्वर ने भग देवता को पकड़ लिया।

भगवान् शंकर के पार्षदों की यह भयंकर लीला देखकर तथा उनके कंकड़-पत्थरों की मार से बहुत तंग आकर वहाँ जितने ऋत्विज्, सदस्य और देवता लोग थे, सब-के-सब जहाँ-तहाँ भाग गये। भृगु जी हाथ में स्रुवा लिये हवन कर रहे थे। वीरभद्र ने इनकी दाढ़ी-मूँछ नोच लीं; क्योंकि इन्होंने प्रजापतियों की सभा में मूँछें ऐंठते हुए महादेव जी का उपहास किया था। उन्होंने क्रोध में भरकर भगदेवता को पृथ्वी पर पटक दिया और उनकी आँखें निकाल लीं; क्योंकि जब दक्ष देवसभा में श्रीमहादेव जी को बुरा-भला कहते हुए शाप दे रहे थे, उस समय इन्होंने दक्ष को सैन देकर उकसाया था। इसके पश्चात् जैसे अनिरुद्ध के विवाह के समय बलराम जी ने कलिंगराज के दाँत उखड़े थे, उसी प्रकार उन्होंने पूषा के दाँत तोड़ दिये; क्योंकि जब दक्ष ने महादेव जी को गलियाँ दी थीं, उस समय ये दाँत दिखाकर हँसे थे। फिर वे दक्ष की छाती पर बैठकर एक तेज तलवार से उसका सिर काटने लगे, परन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी वे उस समय उसे धड़ से अलग न कर सके। जब किसी भी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से दक्ष की त्वचा नहीं कटी, तब वीरभद्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बहुत देर तक विचार करते थे। तब उन्होंने यज्ञमण्डप में यज्ञपशुओं को जिस प्रकार मारा जाता था, उसे देखकर उसी प्रकार दक्षरूप उस यजमान पशु का सिर धड़ से अलग कर दिया। यह देखकर भूत, प्रेत और पिशाचादि तो उनके इस कर्म की प्रशंसा करते हुए ‘वाह-वाह’ करने लगे और दक्ष के दल वालों में हाहाकार मच गया। वीरभद्र ने अत्यन्त कुपित होकर दक्ष के सिर को यज्ञ की दक्षिणाग्नि में डाल दिया और उस यज्ञशाला में आग लगाकर यज्ञ को विध्वंस करके वे कैलास पर्वत पर लौट गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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