श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 18-34

चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद


जिसके राज्य अथवा नगर में वर्णाश्रम-धर्मों का पालन करने वाले पुरुष स्वधर्मपालन के द्वारा भगवान् यज्ञपुरुष की आरधना करते हैं, महाभाग! अपनी आज्ञा का पालन करने वाले उस राजा से भगवान् प्रसन्न रहते हैं; क्योंकि वे ही सारे विश्व की आत्मा तथा सम्पूर्ण भूतों के रक्षक हैं। भगवान् ब्रह्मादि जगदीश्वरों के भी ईश्वर हैं, उनके प्रसन्न होने पर कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती। तभी तो इन्द्रादि लोकपालों के सहित समस्त लोक उन्हें बड़े आदर से पूजपोहार समर्पण करते हैं।

राजन्! भगवान् श्रीहरि समस्त लोक, लोकपाल और यज्ञों के नियन्ता है; वे वेदत्रयीरूप, द्रव्यरूप और तपःस्वरूप हैं। इसलिये आपके जो देशवासी आपकी उन्नति के लिये अनेक प्रकार के यज्ञों से भगवान् का यजन करते हैं, आपको उनके अनुकूल ही रहना चाहिये। जब आपके राज्य में ब्राह्मण लोग यज्ञों का अनुष्ठान करेंगे, तब उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान् के अंशस्वरूप देवता आपको मनचाहा फल देंगे। अतः वीरवर! आपको यज्ञादि धर्मानुष्ठान बंद करके देवताओं का तिरस्कार नहीं करना चाहिये।

वेन ने कहा–- तुम लोग बड़े मूर्ख हो! खेद है, तुमने अधर्म में ही धर्मबुद्धि कर रखी है। तभी तो तुम जीविका देने वाले मुझ साक्षात् पति को छोड़कर किसी दूसरे जारपति की उपासना करते हो। जो लोग मूर्खतावश राजारूप परमेश्वर का अनादर करते हैं, उन्हें न तो इस लोक में सुख मिलता है और न परलोक में ही। अरे! जिसमें तुम लोगों की इतनी भक्ति है, वह यज्ञपुरुष है कौन? यह तो ऐसी ही बात हुई जैसे कुलटा स्त्रियाँ अपने विवाहिता पति से प्रेम न करके किसी परपुरुष में आसक्त हो जायें। विष्णु, ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, मेघ, कुबेर, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्नि और वरुण तथा इनके अतिरिक्त जो दूसरे वर और शाप देने में समर्थ देवता हैं, वे सब-के-सब राजा के शरीर में रहते हैं; इसलिये राजा सर्वदेवमय है और देवता उसके अंशमात्र हैं। इसलिये ब्राह्मणों! तुम मत्सरता छोड़कर अपने सभी कर्मों द्वारा एक मेरा ही पूजन करो और और मुझी को बलि समर्पण करो। भला मेरे सिवा और कौन अग्रपूजा का अधिकारी हो सकता है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- –इस प्रकार विपरीत बुद्धि होने के कारण वह अत्यन्त पापी और कुमार्गगामी हो गया था। उसका पुण्य क्षीण हो चुका था, इसलिये मुनियों के बहुत विनयपूर्वक प्रार्थना करने पर भी उसने उनकी बात पर ध्यान न दिया।

कल्याणरूप विदुर जी! अपने को बड़ा बुद्धिमान् समझने वाले वेन ने जब उन मुनियों का इस प्रकार अपमान किया, तब अपनी माँग को व्यर्थ हुई देख वे उस पर अत्यन्त कुपित हो गये। ‘मार डालो! इस स्वभाव से ही दुष्ट पापी को मार डालो! यह यदि जीता रह गया तो कुछ ही दिनों में संसार को अवश्य भस्म कर डालेगा। यह दुराचारी किसी प्रकार राजसिंहासन के योग्य नहीं है, क्योंकि यह निर्जलज्ज साक्षात् यज्ञपति श्रीविष्णु भगवान् की निन्दा करता है। अहो! जिनकी कृपा से इसे ऐसा ऐश्वर्य मिला, उन श्रीहरि की निन्दा अभागे वेन को छोड़कर और कौन कर सकता है’? इस प्रकार अपने छिपे हुए क्रोध को प्रकट कर उन्होंने उसे मारने का निश्चय कर लिया। वह तो भगवान् की निन्दा करने के कारण पहले ही मर चुका था, इसलिये केवल हुंकारों से ही उन्होंने उसका काम तमाम कर दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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