एकादश स्कन्ध: त्रिंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रिंश अध्याय श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद
मूढ़तावश पुत्र पिता का, भाई भाई का, भानजा मामा का, नाती नाना का, मित्र मित्र का, सुहृद् सुहृद् का, चाचा भतीजे का तथा एक गोत्र वाले आपस में एक-दूसरे का खून करने लगे। अन्त में जब उनके सब बाण समाप्त हो गये, धनुष टूट गये और शस्त्रास्त्र नष्ट-भ्रष्ट हो गये, तब उन्होंने अपने हाथों से समुद्र तट पर लगी हुई 'एरका' नाम की घास उखाड़नी शुरू की। यह वही घास थी, जो ऋषियों के शाप के कारण उत्पन्न हुए लोहमय मूसल के चूरे से पैदा हुई थी। हे राजन्! उनके हाथों में आते ही वह घास वज्र के समान कठोर मुद्गरों के रूप में परिणत हो गयी। अब वे रोष में भरकर उसी घास के द्वारा अपने विपक्षियों पर प्रकार करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें मना किया, तो उन्होंने उनको और बलराम जी को भी अपना शत्रु समझ लिया। उन आततायियों की बुद्धि ऐसी मूढ़ हो रही थी कि वे उन्हें मारने के लिये उनकी ओर दौड़ पड़े। कुरुनन्दन! अब भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी भी क्रोध में भरकर युद्धभूमि में इधर-उधर विचरने और मुट्टी-की-मुट्टी एरका घास उखाड़-उखाड़ कर उन्हें मारने लगे। एरका घास की मुट्टी ही मुद्गर के समान चोट करती थी। जैसे बाँसों की रगड़ से उत्पन्न होकर दावानल बाँसों को ही भस्म कर देता है, वैसे ही ब्रह्मशाप से ग्रस्त और भगवान श्रीकृष्ण की माया से मोहित यदुवंशियों के स्पर्द्धामूलक क्रोध ने उनक ध्वंस कर दिया। जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि समस्त यदुवंशियों का संहार हो चुका है, तब उन्होंने यह सोचकर सन्तोष की साँस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया। परीक्षित! बलराम जी ने समुद्र तट पर बैठकर एकाग्र-चित्त से परमात्मचिन्तन करते हुए अपने आत्मा को आत्मस्वरूप में ही स्थिर कर लिया और मनुष्य शरीर छोड़ दिया। जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरे बड़े भाई बलराम जी परमपद में लीन हो गये, तब वे एक पीपल के पेड़ के तले जाकर चुपचाप धरती पर ही बैठ गये। भगवान श्रीकृष्ण ने उस समय अपनी अंगकान्ति से देदीप्यमान चतुर्भुत रूप धारण कर रखा था और धूम से रहित अग्नि के समान दिशाओं को अन्धकार रहित-प्रकाशमान बना रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज