श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 30-46

अष्टम स्कन्ध: अथाष्टमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 30-46 का हिन्दी अनुवाद


इसके बाद समुद्र मन्थन करने पर कमलनयनी कन्या के रूप में वारुणी देवी प्रकट हुईं। भगवान् की अनुमति से दैत्यों ने उसे ले लिया। तदनन्तर महाराज! देवता और असुरों ने अमृत की इच्छा से जब और भी समुद्र मन्थन किया, तब उसमें से एक अत्यन्त अलौकिक पुरुष प्रकट हुआ। उसकी भुजाएँ लंबी एवं मोटी थीं। उसका गला शंख के समान उतार-चढ़ाव वाला था और आँखों में लालिमा थी। शरीर का रंग बड़ा सुन्दर साँवला-साँवला था। गले में माला, अंग-अंग सब प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित, शरीर पर पीताम्बर, कानों में चमकीले मणियों के कुण्डल, चौड़ी छाती, तरुण अवस्था, सिंह के समान पराक्रम, अनुपम सौन्दर्य, चिकने और घुँघराले बाल लहराते हुए उस पुरुष की छबि बड़ी अनोखी थी। उसके हाथों में कंगन और अमृत से भरा हुआ कलश था। वह साक्षात् विष्णु भगवान् के अंशांश अवतार थे। ये ही आयुर्वेद के प्रवर्तक और यज्ञभोक्ता धन्वन्तरि के नाम से सुप्रसिद्ध हुए।

जब दैत्यों की दृष्टि उन पर तथा उनके हाथ में अमृत से भरे हुए कलश पर पड़ी, तब उन्होंने शीघ्रता से बलात् उस अमृत के कलश को छीन लिया। वे तो पहले से ही इस ताक में थे कि किसी तरह समुद्र मन्थन से निकली हुई सभी वस्तुएँ हमें मिल जायें। जब असुर उस अमृत से भरे कलश को छीन ले गये, तब देवताओं का मन विषाद से भर गया। अब वे भगवान् कि शरण में आये। उनकी दीन दशा देखकर भक्तवाञ्छाकल्पतरु भगवान् ने कहा- ‘देवताओं! तुम लोग खेद मत करो। मैं अपनी माया से उनमें आपस की फूट डालकर अभी तुम्हारा काम बना देता हूँ’।

परीक्षित! अमृतलोलुप दैत्यों में उसके लिये आपस में झगड़ा खड़ा हो गया। सभी कहने लगे ‘पहले मैं पीऊँगा, पहले मैं; तुम नहीं, तुम नहीं’। उनमें जो दुर्बल थे, वे उन बलवान् दैत्यों का विरोध करने लगे, जिन्होंने कलश छीनकर अपने हाथ में कर लिया था, वे ईर्ष्यावश धर्म की दुहाई देकर उनको रोकने और बार-बार कहने लगे कि ‘भाई! देवताओं ने भी हमारे बराबर ही परिश्रम किया है, उनको भी यज्ञ भाग के समान इसका भाग मिलना ही चाहिये। यही सनातन धर्म है’। इस प्रकार इधर दैत्यों में ‘तू-तू, मैं-मैं’ हो रही थी और उधर सभी उपाय जानने वालों के स्वामी चतुरशिरोमणि भगवान् ने अत्यन्त अद्भुत और अवरणनीय स्त्री का रूप ग्रहण किया।

शरीर का रंग नील कमल के समान श्याम एवं देखने ही योग्य था। अंग-प्रत्यंग बड़े ही आकर्षक थे। दोनों कान बराबर और कर्णफूल से सुशोभित थे। सुन्दर कपोल, ऊँची नासिका और रमणीय मुख। नयी जवानी के कारण स्तन उभरे हुए थे और उन्हीं के भार से कमर पतली हो गयी थी। मुख से निकलती हुई सुगन्ध के प्रेम से गुनगुनाते हुए भौंरे उस पर टूटे पड़ते थे, जिससे नेत्रों में कुछ घबराहट का भाव आ जाता था। अपने लंबे केशपाशों में उन्होंने खिले हुए बेले के पुष्पों की माला गूँथ रखी थी। सुन्दर गले में कण्ठ के आभूषण और सुन्दर भुजाओं में बाजूबंद सुशोभित थे। इनके चरणों के नूपुर मधुर ध्वनि से रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे और स्वच्छ साड़ी से ढके नितम्ब द्वीप पर शोभायमान करधनी अपनी अनूठी छटा छिटका रही थी। अपनी सलज्ज मुसकान, नाचती हुई तिरछी भौंहें और विलास भरी चितवन से मोहिनी-रूपधारी भगवान् दैत्य सेनापतियों के चित्त में बार-बार कामोद्दीपन करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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