अष्टम स्कन्ध: अथाष्टमोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 18-29 का हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार सोच-विचारकर अन्त में श्रीलक्ष्मी जी ने अपने चिर-अभीष्ट भगवान् को ही वर के रूप में चुना; क्योंकि उनमें समस्त सद्गुण नित्य निवास करते हैं। प्राकृत गुण उनका स्पर्श नहीं कर सकते और अणिमा आदि समस्त गुण उनको चाहा करते हैं; परन्तु वे किसी की भी अपेक्षा नहीं रखते। वास्तव में लक्ष्मी जी की एकमात्र आश्रय भगवान् ही हैं। इसी से उन्होंने उन्हीं को वरण किया। लक्ष्मी जी ने भगवान् के गले में वह नवीन कमलों की सुन्दर माला पहना दी, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड मतवाले मधुकर गुंजार कर रहे थे। इसके बाद लज्जापूर्ण मुस्कान और प्रेमपूर्ण चितवन से अपने निवास स्थान उनके वक्षःस्थल को देखती ही वे उनके पास ही खड़ी हो गयीं। जगत्पिता भगवान् ने जगज्जननी, समस्त सम्पत्तियों की अधिष्ठातृ देवता श्रीलक्ष्मी जी को अपने वक्षःस्थल पर ही सर्वदा निवास करने का स्थान दिया। लक्ष्मी जी ने वहाँ विराजमान होकर अपनी करुणा भरी चितवन से तीनों लोक, लोकपति और अपनी प्यारी प्रजा की अभिवृद्धि की। उस समय शंख, तुरही, मृदंग आदि बाजे बजने लगे। गन्धर्व, अप्सराओं के साथ नाचने-गाने लगे। इससे बड़ा भारी शब्द होने लगा। ब्रह्मा, रुद्र, अंगिरा आदि सब प्रजापति पुष्पवर्षा करते हुए भगवान् के गुण, स्वरूप और लीला आदि के यथार्थ वर्णन करने वाले मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे। देवता, प्रजापति और प्रजा-सभी लक्ष्मी जी की कृपा दृष्टि से शील आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न होकर बहुत सुखी हो गये। परीक्षित! इधर जब लक्ष्मी जी ने दैत्य और दानवों की उपेक्षा कर दी, तब वे लोग निर्बल, उद्योगरहित, निर्लज्ज और लोभी हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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