श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 18-29

अष्टम स्कन्ध: अथाष्टमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 18-29 का हिन्दी अनुवाद


उनकी कमर बहुत पतली थी। दोनों स्तन बिल्कुल सटे हुए और सुन्दर थे। उन पर चन्दन और केसर का लेप किया हुआ था। जब वे इधर-उधर चलती थीं, तब उनके पायजेब से बड़ी मधुर झनकार निकलती थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई सोने की लता इधर-उधर घूम-फिर रही है। वे चाहती थीं कि मुझे कोई निर्दोष और समस्त उत्तम गुणों से नित्ययुक्त अविनाशी पुरुष मिले तो मैं उसे अपना आश्रय बनाऊँ, वरण करूँ। परन्तु गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध, चारण, देवता आदि में कोई भी वैसा पुरुष उन्हें न मिला। (वे मन-ही-मन सोचने लगीं कि) कोई तपस्वी तो हैं, परन्तु उन्होंने क्रोध पर विजय नहीं प्राप्त की है। किन्हीं में ज्ञान तो है, परन्तु वे पूरे अनासक्त नहीं हैं। कोई-कोई हैं तो बड़े महत्त्वशाली, परन्तु वे काम को नहीं जीत सके हैं। किन्हीं में ऐश्वर्य भी बहुत हैं; परन्तु वह ऐश्वर्य ही किस काम का, जब उन्हें दूसरों का आश्रय लेना पड़ता है। किन्हीं में धर्माचरण तो है; परन्तु प्राणियों के प्रति वे प्रेम का पूरा बर्ताव नहीं करते। त्याग तो है, परन्तु केवल त्याग ही तो मुक्ति का कारण नहीं है। किन्हीं-किन्हीं में वीरता तो अवश्य है, परन्तु वे भी काल के पंजे से बाहर नहीं हैं। अवश्य ही कुछ महात्माओं में विषयासक्ति नहीं है, परन्तु वे तो निरन्तर अद्वैत-समाधि में ही तल्लीन रहते हैं। किसी-किसी ऋषि ने आयु तो बहुत लंबी प्राप्त कर ली है, परन्तु उनका शील-मंगल भी मेरे योग्य नहीं है। किन्हीं में शील-मंगल भी है परन्तु उनकी आयु का कुछ ठिकाना नहीं। अवश्य ही किन्हीं में दोनों ही बातें हैं, परन्तु वे अमंगल-वेष में रहते हैं। रहे एक भगवान् विष्णु उनमें सभी मंगलमय गुण नित्य निवास करते हैं, परन्तु वे मुझे चाहते ही नहीं।

इस प्रकार सोच-विचारकर अन्त में श्रीलक्ष्मी जी ने अपने चिर-अभीष्ट भगवान् को ही वर के रूप में चुना; क्योंकि उनमें समस्त सद्गुण नित्य निवास करते हैं। प्राकृत गुण उनका स्पर्श नहीं कर सकते और अणिमा आदि समस्त गुण उनको चाहा करते हैं; परन्तु वे किसी की भी अपेक्षा नहीं रखते। वास्तव में लक्ष्मी जी की एकमात्र आश्रय भगवान् ही हैं। इसी से उन्होंने उन्हीं को वरण किया। लक्ष्मी जी ने भगवान् के गले में वह नवीन कमलों की सुन्दर माला पहना दी, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड मतवाले मधुकर गुंजार कर रहे थे। इसके बाद लज्जापूर्ण मुस्कान और प्रेमपूर्ण चितवन से अपने निवास स्थान उनके वक्षःस्थल को देखती ही वे उनके पास ही खड़ी हो गयीं।

जगत्पिता भगवान् ने जगज्जननी, समस्त सम्पत्तियों की अधिष्ठातृ देवता श्रीलक्ष्मी जी को अपने वक्षःस्थल पर ही सर्वदा निवास करने का स्थान दिया। लक्ष्मी जी ने वहाँ विराजमान होकर अपनी करुणा भरी चितवन से तीनों लोक, लोकपति और अपनी प्यारी प्रजा की अभिवृद्धि की। उस समय शंख, तुरही, मृदंग आदि बाजे बजने लगे। गन्धर्व, अप्सराओं के साथ नाचने-गाने लगे। इससे बड़ा भारी शब्द होने लगा। ब्रह्मा, रुद्र, अंगिरा आदि सब प्रजापति पुष्पवर्षा करते हुए भगवान् के गुण, स्वरूप और लीला आदि के यथार्थ वर्णन करने वाले मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे। देवता, प्रजापति और प्रजा-सभी लक्ष्मी जी की कृपा दृष्टि से शील आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न होकर बहुत सुखी हो गये।

परीक्षित! इधर जब लक्ष्मी जी ने दैत्य और दानवों की उपेक्षा कर दी, तब वे लोग निर्बल, उद्योगरहित, निर्लज्ज और लोभी हो गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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