श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 33-46

अष्टम स्कन्ध: सप्तमोऽध्याय: अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 33-46 का हिन्दी अनुवाद


जीवन्मुक्त आत्माराम पुरुष अपने हृदय में आपके युगल चरणों का ध्यान करते रहते हैं तथा आप स्वयं भी निरन्तर ज्ञान और तपस्या में ही लीन रहते हैं। फिर भी सती के साथ रहते देखकर जो आपको आसक्त एवं श्मशानवासी होने के कारण उग्र अथवा निष्ठुर बतलाते हैं-वे मूर्ख आपकी लीलाओं का रहस्य भला क्या जानें। उनका वैसा कहना निर्लज्जता से भरा है।

इस कार्य और कारण रूप जगत् से परे माया है और माया से भी अत्यन्त परे आप हैं। इसलिये प्रभो! आपके अनन्त स्वरूप का साक्षात् ज्ञान प्राप्त करने में सहसा ब्रह्मा आदि भी समर्थ नहीं होते, फिर स्तुति तो कर ही कैसे सकते हैं। ऐसी अवस्था में उनके पुत्रों के पुत्र हम लोग कह ही क्या सकते हैं। फिर भी अपनी शक्ति के अनुसार हमने आपका कुछ गुणगान किया है। हम लोग तो केवल आपके इसी लीलाविहारी रूप को देख रहे हैं। आपके परम स्वरूप को हम नहीं जानते। महेश्वर! यद्यपि आपकी लीलाएँ अव्यक्त हैं, फिर भी संसार का कल्याण करने के लिये आप व्यक्त रूप से भी रहते हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! प्रजा का यह संकट देखकर समस्त प्राणियों के अकारण बन्धु देवाधिदेव भगवान् शंकर के हृदय में कृपावश बड़ी व्यथा हुई। उन्होंने अपनी प्रिया सती से यह बात कही।

शिव जी ने कहा- देवि! यह बड़े खेद की बात है। देखो तो सही, समुद्र मन्थन से निकले हुए कालकूट विष के कारण प्रजा पर कितना बड़ा दुःख आ पड़ा है। ये बेचारे किसी प्रकार अपने प्राणों की रक्षा करना चाहते हैं। इस समय मेरा यह कर्तव्य है कि मैं उन्हें निर्भय कर दूँ। जिनके पास शक्ति-सामर्थ्य है, उनके जीवन की सफलता इसी में है कि वे दीन-दुखियों की रक्षा करें। सज्जन पुरुष अपने क्षणभंगुर प्राणों की बलि देकर भी दूसरे प्राणियों के प्राण की रक्षा करते हैं। कल्याणि! अपने ही मोह की माया में फँसकर संसार के प्राणी मोहित हो रहे हैं और एक-दूसरे से वैर की गाँठ बाँधे बैठे हैं। उनके ऊपर जो कृपा करता है, उस पर सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और जब भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर जगत् के साथ मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ। इसलिये अभी-अभी मैं इस विष को भक्षण करता हूँ, जिससे मेरी प्रजा का कल्याण हो।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- विश्व के जीवनदाता भगवान् शंकर इस प्रकार सती देवी से प्रस्ताव करके उस विष को खाने के लिये तैयार हो गये। देवी तो उनका प्रभाव जानती ही थीं, उन्होंने हृदय से इस बात का अनुमोदन किया। भगवान् शंकर बड़े कृपालु हैं। उन्हीं की शक्ति से समस्त प्राणी जीवित रहते हैं। उन्होंने उस तीक्ष्ण हलाहल विष को अपनी हथेली पर उठाया और भक्षण कर गये। वह विष जल का पाप-मल था। उसने शंकर जी पर भी अपना प्रभाव प्रकट कर दिया, उससे उनका कण्ठ नीला पड़ गया, परन्तु वह तो प्रजा का कल्याण करने वाले भगवान् शंकर के लिये भूषण रूप हो गया। परोपकारी सज्जन प्रायः प्रजा का दुःख टालने के लिये स्वयं दुःख झेला ही करते हैं। परन्तु यह दुःख नहीं है, यह तो सबके हृदय में विराजमान भगवान् की परम आराधना है।

देवाधिदेव भगवान् शंकर सबकी कामना पूर्ण करने वाले हैं। उनका यह कल्याणकारी अद्भुत कर्म सुनकर सम्पूर्ण प्रजा, दक्षकन्या सती, ब्रह्मा जी और स्वयं विष्णु भगवान् भी उनकी प्रशंसा करने लगे। जिस समय भगवान् शंकर विषपान कर रहे थे, उस समय उनके हाथ से थोड़ा-सा विष टपक पड़ा था। उसे बिच्छू, साँप तथा अन्य विषैले जीवों ने एवं विषैली ओषधियों ने ग्रहण कर लिया।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः