श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 25-39

अष्टम स्कन्ध: षष्ठोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 25-39 का हिन्दी अनुवाद


पहले समुद्र से कालकूट विष निकलेगा, उससे डरना नहीं और किसी भी वस्तु के लिये कभी भी लोभ न करना। पहले तो किसी वस्तु की कामना ही नहीं करनी चाहिये, परन्तु यदि कामना हो और वह पूरी न हो तो क्रोध तो करना ही नहीं चाहिये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! देवताओं को यह आदेश देकर पुरुषोत्तम भगवान् उनके बीच में ही अन्तर्धान हो गये। वे सर्वशक्तिमान् एवं परम स्वतन्त्र जो ठहरे। उनकी लीला का रहस्य कौन समझे। उनके चले जाने पर ब्रह्मा और शंकर ने फिर से भगवान् को नमस्कार किया और वे अपने-अपने लोकों को चले गये, तदनन्तर इन्द्रादि देवता राजा बलि के पास गये।

देवताओं को बिना अस्त्र-शस्त्र के सामने आते देख दैत्य सेनापतियों के मन में बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने देवताओं को पकड़ लेना चाहा। परन्तु दैत्यराज बलि सन्धि और विरोध के अवसर को जानने वाले एवं पवित्र कीर्ति से सम्पन्न थे। उन्होंने दैत्यों को वैसा करने से रोक दिया। इसके बाद देवता लोग बलि के पास पहुँचे। बलि ने तीनों लोकों को जीत लिया था। वे समस्त सम्पत्तियों से सेवित एवं असुर सेनापतियों से सुरक्षित होकर अपने राजसिंहासन पर बठे हुए थे। बुद्धिमान् इन्द्र बड़ी मधुर वाणी से समझाते हुए राजा बलि से वे सब बातें कहीं, जिनकी शिक्षा स्वयं भगवान् ने उन्हें दी थी। वह बात दैत्यराज बलि को जँच गयी।

वहाँ बैठे हुए दूसरे सेनापति शम्बर, अरिष्टनेमि और त्रिपुरनिवासी असुरों को भी यह बात बहुत अच्छी लगी। तब देवता और असुरों ने आपस में सन्धि समझौता करके मित्रता कर ली और परीक्षित! वे सब मिलकर अमृत मन्थन के लिये पूर्ण उद्योग करने लगे। इसके बाद उन्होंने अपनी शक्ति से मन्दराचल को उखाड़ लिया और ललकारते तथा गरजते हुए उसे समुद्र तट की ओर ले चले। उनकी भुजाएँ परिघ के समान थीं, शरीर में शक्ति थी और अपने-अपने बल का घमंड तो था ही। परन्तु एक तो वह मन्दर पर्वत ही बहुत भारी था और दूसरे उसे ले जाना भी बहुत दूर था। इससे इन्द्र, बलि आदि सब-के-सब हार गये। जब ये किसी प्रकार भी मन्दराचल को आगे न ले जा सके, तब विवश होकर उन्होंने उसे रास्ते में ही पटक दिया।

वह सोने का पर्वत मन्दराचल बड़ा भारी था। गिरते समय उसने बहुत-से देवता और दानवों को चकनाचूर कर डाला। उन देवता और असुरों के हाथ, कमर और कंधे टूट ही गये थे, मन भी टूट गया। उनका उत्साह भंग हुआ देख गरुड़ पर चढ़े हुए भगवान् सहसा वहीं प्रकट हो गये। उन्होंने देखा कि देवता और असुर पर्वत के गिरने से पिस गये हैं। अतः उन्होंने अपनी अमृतमयी दृष्टि से देवताओं को इस प्रकार जीवित कर दिया, मानो उनके शरीर में बिलकुल चोट ही न लगी हो। इसके बाद उन्होंने खेल-ही-खेल में एक हाथ से उस पर्वत को उठाकर गरुड़ पर रख लिया और स्वयं भी सवार हो गये। फिर देवता और असुरों के साथ उन्होंने समुद्र तट की यात्रा की। पक्षिराज गरुड़ ने समुद्र के तट पर पर्वत को उतार दिया। फिर भगवान् के विदा करने पर गरुड़ जी वहाँ से चले गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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