श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 19-29

अष्टम स्कन्ध: पञ्चमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 19-29 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्मा जी ने स्वयं देखा कि इन्द्र, वायु आदि देवता श्रीहीन एवं शक्तिहीन हो गये हैं। लोगों की परिस्थिति बड़ी विकट, संकटग्रस्त हो गयी है और असुर इनके विपरीत फल-फूल रहे हैं। समर्थ ब्रह्मा जी ने अपना मन एकाग्र करके परमपुरुष भगवान् का स्मरण किया; फिर थोड़ी देर रुककर प्रफुल्लित मुख से देवताओं को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘देवताओं! मैं, शंकर जी, तुम लोग तथा असुर, दैत्य, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष और स्वेदज आदि समस्त प्राणी जिनके विराट् रूप के एक अत्यन्त स्वल्पातिस्वल्प अंश से रचे गये हैं-हम लोग उन अविनाशी प्रभु की ही शरण ग्रहण करें। यद्यपि उनकी दृष्टि में न कोई वध का पात्र है और न रक्षा का, उनके लिये न तो कोई उपेक्षणीय है न कोई आदर का पात्र ही-फिर भी सृष्टि, स्थिति और प्रलय के लिये समय-समय पर वे रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को स्वीकार किया करते हैं। उन्होंने इस समय प्राणियों के कल्याण के लिये सत्त्वगुण को स्वीकार कर रखा है। इसलिये यह जगत् की स्थिति और रक्षा का अवसर है। अतः हम सब उन्हीं जगद्गुरु परमात्मा की शरण ग्रहण करते हैं। वे देवताओं के प्रिय हैं और देवता उनके प्रिय। इसलिये हम निजजनों का वे अवश्य ही कल्याण करेंगे।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! देवताओं से यह कहकर ब्रह्मा जी देवताओं को साथ लेकर भगवान् अजित के निजधाम वैकुण्ठ में गये। वह धाम तमोमयी प्रकृति से परे है। इन लोगों ने भगवान् के स्वरूप और धाम के सम्बन्ध में पहले से ही बहुत कुछ सुन रखा था, परन्तु वहाँ जाने पर लोगों को कुछ दिखायी न पड़ा। इसलिये ब्रह्मा जी एकाग्र मन से वेदवाणी के द्वारा भगवान् की स्तुति करने लगे।

ब्रह्मा जी बोले- भगवन्! आप निर्विकार, सत्य, अनन्त, आदिपुरुष, सबके हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान, अखण्ड एवं अतर्क्य हैं। मन जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ-वहाँ आप पहले ही विद्यमान रहते हैं। वाणी आपका निरूपण नहीं कर सकती। आप समस्त देवताओं के आराधनीय और स्वयं प्रकाश हैं। हम सब आपके चरणों में नमस्कार करते हैं। आप प्राण, मन, बुद्धि और अहंकार के ज्ञाता हैं। इन्द्रियाँ और उनके विषय दोनों ही आपके द्वारा प्रकाशित होते हैं। अज्ञान आपका स्पर्श नहीं कर सकता। प्रकृति के विकार मरने-जीने वाले शरीर से भी आप रहित हैं। जीव के दोनों पक्ष-अविद्या और विद्या आप में बिलकुल ही नहीं हैं। आप अविनाशी और सुख स्वरूप हैं। सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में तो आप प्रकट रूप से ही विराजमान रहते हैं। हम सब आपकी शरण ग्रहण करते हैं।

यह शरीर जीव का एक मनोमय चक्र (रथ का पहिया) है। दस इन्द्रिय और पाँच प्राण-ये पंद्रह इसके अरे हैं। सत्त्व, रज और तम-ये तीन गुण इसकी नाभि हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार-ये आठ इसमें नेमि (पहिये का घेरा) हैं। स्वयं माया इसका संचालन करती है और यह बिजली से भी अधिक शीग्रगामी है। इस चक्र के धुरे हैं स्वयं परमात्मा। वे ही एकमात्र सत्य हैं। हम उनकी शरण में हैं। जो एकमात्र ज्ञानस्वरूप, प्रकृति से परे एवं अदृश्य हैं; जो समस्त वस्तुओं के मूल में स्थित अव्यक्त हैं और देश, काल अथवा वस्तु से जिनका पार नहीं पाया जा सकता-वही प्रभु इस जीव के हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान रहते हैं। विचारशील मनुष्य भक्तियोग के द्वारा उन्हीं की आराधना करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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