अष्टम स्कन्ध: पञ्चमोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 19-29 का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! देवताओं से यह कहकर ब्रह्मा जी देवताओं को साथ लेकर भगवान् अजित के निजधाम वैकुण्ठ में गये। वह धाम तमोमयी प्रकृति से परे है। इन लोगों ने भगवान् के स्वरूप और धाम के सम्बन्ध में पहले से ही बहुत कुछ सुन रखा था, परन्तु वहाँ जाने पर लोगों को कुछ दिखायी न पड़ा। इसलिये ब्रह्मा जी एकाग्र मन से वेदवाणी के द्वारा भगवान् की स्तुति करने लगे। ब्रह्मा जी बोले- भगवन्! आप निर्विकार, सत्य, अनन्त, आदिपुरुष, सबके हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान, अखण्ड एवं अतर्क्य हैं। मन जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ-वहाँ आप पहले ही विद्यमान रहते हैं। वाणी आपका निरूपण नहीं कर सकती। आप समस्त देवताओं के आराधनीय और स्वयं प्रकाश हैं। हम सब आपके चरणों में नमस्कार करते हैं। आप प्राण, मन, बुद्धि और अहंकार के ज्ञाता हैं। इन्द्रियाँ और उनके विषय दोनों ही आपके द्वारा प्रकाशित होते हैं। अज्ञान आपका स्पर्श नहीं कर सकता। प्रकृति के विकार मरने-जीने वाले शरीर से भी आप रहित हैं। जीव के दोनों पक्ष-अविद्या और विद्या आप में बिलकुल ही नहीं हैं। आप अविनाशी और सुख स्वरूप हैं। सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में तो आप प्रकट रूप से ही विराजमान रहते हैं। हम सब आपकी शरण ग्रहण करते हैं। यह शरीर जीव का एक मनोमय चक्र (रथ का पहिया) है। दस इन्द्रिय और पाँच प्राण-ये पंद्रह इसके अरे हैं। सत्त्व, रज और तम-ये तीन गुण इसकी नाभि हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार-ये आठ इसमें नेमि (पहिये का घेरा) हैं। स्वयं माया इसका संचालन करती है और यह बिजली से भी अधिक शीग्रगामी है। इस चक्र के धुरे हैं स्वयं परमात्मा। वे ही एकमात्र सत्य हैं। हम उनकी शरण में हैं। जो एकमात्र ज्ञानस्वरूप, प्रकृति से परे एवं अदृश्य हैं; जो समस्त वस्तुओं के मूल में स्थित अव्यक्त हैं और देश, काल अथवा वस्तु से जिनका पार नहीं पाया जा सकता-वही प्रभु इस जीव के हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान रहते हैं। विचारशील मनुष्य भक्तियोग के द्वारा उन्हीं की आराधना करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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