श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 15-30

अष्टम स्कन्ध: षोडशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद


मेरे स्वामी! मैं आपकी दासी हूँ। आप मेरी भलाई के सम्बनध में विचार कीजिये। मर्यादापालक प्रभो! शत्रुओं ने हमारी सम्पत्ति और रहने का स्थान तक छीन लिया है। आप हमारी रक्षा कीजिये। बलवान दैत्यों ने मेरे ऐश्वर्य, धन, यश और पद छीन लिये हैं तथा हमें घर से बाहर निकाल दिया है। इस प्रकार मैं दुःख के समुद्र में डूब रही हूँ। आपसे बढ़कर हमारी भलाई करने वाला और कोई नहीं है। इसलिये मेरे हितैषी स्वामी! आप सोच-विचार कर अपने संकल्प से ही मेरे कल्याण का कोई ऐसा उपाय कीजिये, जिससे कि मेरे पुत्रों को वे वस्तुएँ फिर से प्राप्त हो जायें।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- 'इस प्रकार अदिति ने जब कश्यप जी से प्रार्थना की, तब वे कुछ विस्मित-से होकर बोले- ‘बड़े आश्चर्य की बात है। भगवान की माया भी कैसी प्रबल है! यह सारा जगत स्नेह की रज्जु से बँधा हुआ है। कहाँ यह पंचभूतों से बना हुआ अनातमा शरीर और कहाँ प्रकृति से परे आत्मा? न किसी का कोई पति है, न पुत्र है और न तो सम्बन्धी ही है। मोह ही मनुष्यों को नचा रहा है। प्रिये! तुम सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में विराजमान, अपने भक्तों के दुःख मिटाने वाले जगद्गुरु भगवान वासुदेव की आराधना करो। वे बड़े दीनदयालु हैं। अवश्य ही श्रीहरि तुम्हारी कामनाएँ पूर्ण करेंगे। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि भगवान की भक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती। इसके सिवा कोई दूसरा उपाय नहीं है’।

अदिति ने पूछा- 'भगवन! मैं जगदीश्वर भगवान की आराधना किस प्रकार करूँ, जिससे वे सत्यसंकल्प प्रभु मेरा मनोरथ पूर्ण करें। पतिदेव! मैं अपने पुत्रों के साथ बहुत दुःख भोग रही हूँ। जिससे वे शीघ्र ही मुझ पर प्रसनन हो जायें, उनकी आराधना की वही विधि मुझे बतलाइये।'

कश्यप जी ने कहा- 'देवि! जब मुझे संतान की कामना हुई थी, तब मैंने भगवान ब्रह्मा जी से यही बात पूछी थी। उन्होंने मुझे भगवान को प्रसन्न करने वाले जिस व्रत का उपदेश किया था, वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ। फाल्गुन के शुक्ल पक्ष में बारह दिन तक केवल दूध पीकर रहे और परम भक्ति से भगवान कमलनयन की पूजा करे। अमावस्या के दिन यदि मिल सके तो सूअर की खोदी हुई मिट्टी से अपना शरीर मलकर नदी में स्नान करे। उस समय यह मंत्र पढ़ना चाहिये।

हे देवि! प्राणियों को स्थान देने की इच्छा से वराह भगवान ने रसातल से तुम्हारा उद्धार किया था। तुम्हें मेरा नमस्कार है। तुम मेरे पापों को नष्ट कर दो। इसके बाद अपने नित्य और नैमित्तिक नियमों को पूरा करके एकाग्रचित्त से मूर्ति, वेदी, सूर्य, जल, अग्नि और गुरुदेव के रूप में भगवान की पूजा करे। (और इस प्रकार स्तुति करे- ) ‘प्रभो! आप सर्वशक्तिमान हैं। अंतर्यामी और आराधनीय हैं। समस्त प्राणी आप में और आप समस्त प्राणियों में निवास करते हैं। इसी से आपको ‘वासुदेव’ कहते हैं। आप समस्त चराचर जगत और उसके कारण के भी साक्षी हैं। भगवन! मेरा आपको नमस्कार है। आप अव्यक्त और सूक्ष्म हैं। प्रकृति और पुरुष के रूप में भी आप ही स्थित हैं। आप चौबीस गुणों के जानने वाले और गुणों की संख्या करने वाले सांख्यशास्त्र के प्रवर्तक हैं। आपको मेरा नमस्कार है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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