श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 24-37

अष्टम स्कन्ध: द्वादशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 24-37 का हिन्दी अनुवाद


मोहिनी का एक-एक अंग बड़ा ही रुचिकर और मनोरम था। जहाँ आँखें लग जातीं, लगी ही रहतीं। यही नहीं, मन भी वहीं रमण करने लगता। उसको इस दशा में देखकर भगवान् शंकर उसकी ओर अत्यन्त आकृष्ट हो गये। उन्हें मोहिनी भी अपने प्रति आसक्त जान पड़ती थी। उसने शंकर जी का विवेक छीन लिया। वे उसके हाव-भावों से कामातुर हो गये और भवानी के सामने ही लज्जा छोड़कर उसकी ओर चल पड़े।

मोहिनी वस्त्रहीन तो पहले ही हो चुकी थी, शंकर जी को अपनी ओर आते देख बहुत लज्जित हो गयी। वह एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष की आड़ से जाकर छिप जाती और हँसने लगती। परन्तु कहीं ठहरती न थी। भगवान् शंकर की इन्द्रियाँ अपने वश में नहीं रहीं, वे कामवश हो गये थे; अतः हथिनी के पीछे हाथी की तरह उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। उन्होंने अत्यन्त वेग से उसका पीछा करके पीछे से उसका जूड़ा पकड़ लिया और उसकी इच्छा न होने पर भी उसे दोनों भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लिया।

जैसे हाथी हथिनी का आलिंगन करता है, वैसे ही भगवान् शंकर ने उसका आलिंगन किया। वह इधर-उधर खिसककर छुड़ाने की चेष्टा करने लगी, इसी छीना-झपटी में उसके सिर के बाल बिखर गये। वास्तव में वह सुन्दरी भगवान् की रची हुई माया ही थी, इससे उसने किसी प्रकार शंकर जी के भुजपाश से अपने को छुड़ा लिया और बड़े वेग से भागी। भगवान् शंकर भी उन मोहिनी वेषधारी अद्भुतकर्मा भगवान् विष्णु के पीछे-पीछे दौड़ने लगे। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो उनके शत्रु कामदेव ने इस समय उन पर विजय प्राप्त कर ली है। कामुक हथिनी के पीछे दौड़ने वाले मदोन्मत्त हाथी के समान वे मोहिनी के पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। यद्यपि भगवान् शंकर का वीर्य अमोघ है, फिर भी मोहिनी की माया से वह स्खलित हो गया। भगवान् शंकर का वीर्य पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ गिरा, वहाँ-वहाँ सोने-चाँदी की खानें बन गायीं।

परीक्षित! नदी, सरोवर, पर्वत, वन और उपवन में एवं जहाँ-जहाँ ऋषि-मुनि निवास करते थे, वहाँ-वहाँ मोहिनी के पीछे-पीछे भगवान् शंकर गये थे। परीक्षित! वीर्यपात हो जाने के बाद उन्हें अपनी स्मृति हुई। उन्होंने देखा कि अरे, भगवान् की माया ने तो मुझे खूब छकाया। वे तुरंत उस दुःखद प्रसंग से अलग हो गये। इसके बाद आत्मस्वरूप सर्वात्मा भगवान् की यह महिमा जानकर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे जानते थे कि भला, भगवान् की शक्तियों का पार कौन पा सकता है। भगवान् ने देखा कि भगवान् शंकर को इससे विषाद या लज्जा नहीं हुई है, तब वे पुरुषशरीर धारण करके फिर प्रकट हो गये और बड़ी प्रसन्नता से उनसे कहने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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