श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 32-48

अष्टम स्कन्ध: अथैकादशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 32-48 का हिन्दी अनुवाद


यद्यपि इन्द्र ने बड़े वेग से वह वज्र चलाया था, परन्तु उस यशस्वी वज्र से उसके चमड़े पर खरोंच तक नहीं आयी। यह बड़ी आश्चर्यजनक घटना हुई कि जिस वज्र ने महाबली वृत्रासुर का शरीर टुकड़े-टुकड़े कर डाला था, नमुचि के गले की त्वचा ने उसका तिरस्कार कर दिया। जब वज्र नमुचि का कुछ न बिगाड़ सका, तब इन्द्र उससे डर गये। वे सोचने लगे कि ‘दैवयोग से संसार भर को संशय में डालने वाली यह कैसी घटना हो गयी। पहले युग में जब ये पर्वत पाँखों से उड़ते थे और घूमते-फिरते भार के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ते थे, तब प्रजा का विनाश होते देखकर इसी वज्र से मैंने उन पहाड़ों की पाँखें काट डाली थीं। त्वष्टा की तपस्या का सार ही वृत्रासुर के रूप में प्रकट हुआ था। उसे भी मैंने इसी वज्र के द्वारा काट डाला था और भी अनेकों दैत्य, जो बहुत बलवान् थे और किसी अस्त्र-शस्त्र से जिनके चमड़े को भी चोट नहीं पहुँचायी जा सकी थी, इसी वज्र से मैंने मृत्यु के घाट उतार दिये थे। वही मेरा वज्र मेरे प्रहार करने पर भी इस तुच्छ असुर को न मार सका, अतः अब मैं इसे अंगीकार नहीं कर सकता। यह ब्रह्मतेज से बना है तो क्या हुआ, अब तो निकम्मा हो चुका है’।

इस प्रकार इन्द्र विषाद करने लगे। उसी समय यह आकाशवाणी हुई- "यह दानव न तो सूखी वस्तु से मर सकता है, न गीली से। इसे मैं वर दे चुका हूँ कि ‘सूखी या गीली वस्तु से तुम्हारी मृत्यु न होगी।’ इसलिये इन्द्र! इस शत्रु को मारने के लिये अब तुम कोई दूसरा उपाय सोचो।"

उस आकाशवाणी को सुनकर देवराज इन्द्र बड़ी एकाग्रता से विचार करने लगे। सोचते-सोचते उन्हें सूझ गया कि समुद्र का फेन तो सूखा भी है, गीला भी। इसलिये न उसे सूखा कह सकते हैं, न गीला। अतः इन्द्र ने उस न सूखे और न गीले समुद्र फेन से नमुचि का सिर काट डाला। उस समय बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान् इन्द्र पर पुष्पों की वर्षा और उनकी स्तुति करने लगे। गन्धर्वशिरोमणि विश्वावसु तथा परवसुगान करने लगे, देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं और नर्तकियाँ आनन्द से नाचने लगीं। इसी प्रकार वायु, अग्नि, वरुण आदि दूसरे देवताओं ने भी अपने अस्त्र-शस्त्रों से विपक्षियों को वैसे ही मार गिराया जैसे सिंह हरिनों को मार डालते हैं।

परीक्षित! इधर ब्रह्मा जी ने देखा कि दानवों का तो सर्वथा नाश हुआ जा रहा है। तब उन्होंने देवर्षि नारद को देवताओं के पास भेजा और नारद जी ने वहाँ जाकर देवताओं को लड़ने से रोक दिया।

नारद जी ने कहा- देवताओं! भगवान् की भुजाओं की छत्रछाया में रहकर आप लोगों ने अमृत प्राप्त कर लिया है और लक्ष्मी जी ने भी अपनी कृपा-कोर से आपकी अभिवृद्धि की है, इसलिये आप लोग अब लड़ाई बंद कर दें।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- देवताओं ने देवर्षि नारद की बात मानकर अपने क्रोध के वेग को शान्त कर लिया और फिर वे सब-के-सब अपने लोक स्वर्ग को चले गये। उस समय देवताओं के अनुचर उनके यश का गान कर रहे थे। युद्ध में बचे हुए दैत्यों ने देवर्षि नारद की सम्मति से वज्र की चोट से मरे हुए बलि को लेकर अस्ताचल की यात्रा की। वहाँ शुक्राचार्य ने अपनी संजीवनी विद्या से उन असुरों को जीवित कर दिया, जिनके गरदन आदि अंग कटे नहीं थे, बच रहे थे। शुक्राचार्य के स्पर्श करते ही बलि की इन्द्रियों में चेतना और मन में स्मरण शक्ति आ गयी। बलि यह बात समझते थे कि संसार में जीवन-मृत्यु, जय-पराजय आदि उलट-फेर होते ही रहते हैं। इसलिये पराजित होने पर भी उन्हें किसी प्रकार का खेद नहीं हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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