श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 398

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-11


सगुणवादियों तथा निर्गुणवादियों में भगवान के मनुष्य रूप में प्रकट होने को लेकर काफी मतभेद है। किन्तु यदि हम भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे प्रामाणिक ग्रंथों का अनुशीलन कृष्णतत्त्व समझने के लिए करें तो हम समझ सकते हैं कि श्रीकृष्ण भगवान हैं। यद्यपि वे इस धराधाम में सामान्य व्यक्ति की भाँति प्रकट हुए थे, किन्तु वे सामान्य व्यक्ति हैं नहीं। श्रीमद्भागवत[1] में जब शौनक आदि मुनियों ने सूत गोस्वामी से कृष्ण के कार्यकलापों के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा–

कृतवान् किल कर्माणि सह रामेण केशवः।
अतिमर्त्यानि भगवान् गूढः कपटमानुषः।।

“भगवान श्रीकृष्ण ने बलराम के साथ-साथ मनुष्य की भाँति क्रीड़ा की और इस तरह प्रच्छन्न रूप में उन्होंने अनेक अतिमानवीय कार्य किये।” मनुष्य के रूप में भगवान का प्राकट्य मुर्ख को मोहित बना देता है। कोई भी मनुष्य उन अलौकिक कार्यों को सम्पन्न नहीं कर सकता जिन्हें उन्होंने इस धरा पर करके दिखा दिया था। जब कृष्ण अपने पिता तथा माता, वासुदेव तथा देवकी के समक्ष प्रकट हुए तो वे चार भुजाओं से युक्त थे। किन्तु माता-पिता की प्रार्थना पर उन्होंने एक सामान्य शिशु का रूप धारण कर लिया– बभूव प्राकृतः शिशुः।[2] वे एक सामान्य शिशु, एक सामान्य मानव बन गये। यहाँ पर भी यह इंगित होता है कि सामान्य व्यक्ति के रूप में प्रकट होना उनके दिव्य शरीर का एक गुण है। भगवद्गीता के ग्याहरवें अध्याय में भी कहा गया है कि अर्जुन ने कृष्ण से अपना चतुर्भुज रूप दिखलाने के लिए प्रार्थना की।[3] इस रूप को प्रकट करने के बाद अर्जुन के प्रार्थना करने पर उन्होंने पूर्व मनुष्य रूप धारण कर लिया।[4] भगवान के ये विभिन्न गुण निश्चय ही सामान्य मनुष्य जैसे नहीं हैं।


कतिपय लोग, जो कृष्ण का उपहास करते हैं और मायावादी दर्शन से प्रभावित होते हैं, श्रीमद्भागवत[5] के निम्नलिखित श्लोक को यह सिद्ध करने के लिए उदधृत करते हैं कि कृष्ण एक सामान्य व्यक्ति थे। अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा– परमेश्वर समस्त जीवों में विद्यमान हैं। अच्छा हो कि इस श्लोक को हम जीव गोस्वामी तथा विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जैसे वैष्णव आचार्यों से ग्रहण करें, न की कृष्ण का उपहास करने वाले अनधिकारी व्यक्तियों की व्याख्याओं से। जीव गोस्वामी इस श्लोक की टीका करते हुए कहते हैं कि कृष्ण समस्त चराचारों में अपने अंश विस्तार परमात्मा के रूप में स्थित हैं। अतः कोई भी नवदीक्षित भक्त जो मन्दिर में भगवान की अर्चामूर्ति पर ही ध्यान देता है और अन्य जीवों का सम्मान नहीं करता वह वृथा ही मन्दिर में भगवान की पूजा में लगा रहता है। भगवद्भक्तों के तीन प्रकार हैं, जिनमें से नवदीक्षित सबसे निम्न श्रेणी के हैं। नवदीक्षित भक्त अन्य भक्तों की अपेक्षा मन्दिर के अर्चाविग्रह पर अधिक ध्यान देते हैं, अतः विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर चेतावनी देते हैं कि इस प्रकार की मानसिकता को सुधारना चाहिए। भक्त को समझना चाहिए कि चूँकि कृष्ण परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में विद्यमान हैं, अतः प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर का निवास या मन्दिर है, इसीलिए जिस तरह कोई भक्त भगवान के मन्दिर का सम्मान करता है, वैसे ही उसे प्रत्येक व्यक्ति का समुचित सम्मान करना चाहिए, कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

ऐसे अनेक निर्विशेष वादी है जो मन्दिर पूजा का उपहास करते हैं। वे कहते हैं कि चूँकि भगवान सर्वत्र हैं तो फिर अपने को हम मन्दिर पूजा तक ही सीमित क्यों रखें? यदि ईश्वर सर्वत्र हैं तो क्या वे मन्दिर या अर्चाविग्रह में नहीं होंगे? यद्यपि सगुण वादी तथा निर्विशेष वादी निरन्तर लड़ते रहेंगे, किन्तु कृष्ण भावनामृत में पूर्ण भक्त यह जानता है कि यद्यपि कृष्ण भगवान हैं, किन्तु इसके साथ वे सर्वव्यापी भी हैं, जिसकी पुष्टि ब्रह्मसंहिता में हुई है। यद्यपि उनका निजी धाम गोलोक वृन्दावन है और वे वहीं निरन्तर वास करते हैं, किन्तु वे अपनी शक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियों द्वारा तथा अपने स्वांश द्वारा भौतिक तथा आध्यात्मिक जगत में सर्वत्र विद्यमान रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.1.20
  2. भागवत 10.3.46
  3. तैनेव रूपेण चतुर्भुजेन
  4. मानुषं रूपम्
  5. 3.21-29

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