श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 397

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-11


भगवान कृष्ण के सच्चिदानन्द स्वरूप होने पर भी ऐसे अनेक तथा कथित विद्वान तथा भगवद्गीता के टीकाकार हैं जो कृष्ण को सामान्य पुरुष कहकर उनका उपहास करते हैं। भले ही अपने पूर्व पुण्यों के कारण विद्वान असाधारण व्यक्ति के रूप में पैदा हुआ हो, किन्तु श्रीकृष्ण के बारे में ऐसी धारणा उसकी अल्पज्ञता के कारण होती है। इसीलिए वह मूढ़ कहलाता है, क्योंकि मुर्ख पुरुष ही कृष्ण को सामान्य पुरुष मानते हैं। ऐसे मुर्ख पुरुष कृष्ण को सामान्य पुरुष इसीलिए मानते हैं, क्योंकि वे कृष्ण के गुह्य कार्यों तथा उनकी विभिन्न शक्तियों से अपरिचित होते हैं। वे यह नहीं जानते कि कृष्ण का शरीर पूर्ण ज्ञान तथा आनन्द का प्रतिक है, वे प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं और किसी को भी मुक्ति प्रदान करने वाले हैं। चूँकि वे कृष्ण के इतने सारे दिव्य गुणों को नहीं जानते, इसीलिए उनका उपहास करते हैं।

ये मूढ़ यह भी नहीं जानते कि इस जगत में भगवान का अवतरण उनकी अन्तरंगा शक्ति का प्राकट्य है। वे भौतिक शक्ति[1] के स्वामी हैं। जैसा कि अनेक स्थलों पर कहा जा चुका है,[2] भगवान का दावा है कि यद्यपि भौतिक शक्ति अत्यन्त प्रबल है, किन्तु वह उनके वश में रहती है और जो भी उनकी शरण ग्रहण कर लेता है, वह इस माया के वश से बाहर निकल आता है। यदि कृष्ण का शरणागत जीव माया के प्रभाव से बाहर निकल सकता है, तो भला परमेश्वर जो सम्पूर्ण विराट जगत का सृजन, पालन तथा संहारकर्ता है, हम लोगों जैसा शरीर कैसे धारण कर सकता है? अतः कृष्ण विषयक ऐसी धारणा मूर्खतापूर्ण है। फिर भी मुर्ख व्यक्ति यह नहीं समझ सकते कि सामान्य व्यक्ति के रूप में प्रकट होने वाले भगवान समस्त परमाणुओं तथा इस विराट ब्रह्माण्ड के नियन्ता किस तरह हो सकते हैं। बृहत्तम तथा सूक्ष्मतम तो उनकी विचार शक्ति से परे होते हैं, अतः वे यह सोच भी नहीं सकते कि मनुष्य-जैसा रूप कैसे एक साथ विशाल को तथा अणु को वश में कर सकता है। यद्यपि कृष्ण असीम तथा ससीम को नियन्त्रित करते हैं, किन्तु वे इस जगत से विलग रहते हैं। उनके योगमैश्वरम या अचिन्त्य दिव्य शक्ति के विषय में कहा गया है कि वे एक साथ ससीम तथा असीम को वश में रख सकते हैं, किन्तु जो शुद्ध भक्त हैं वे इसे स्वीकार करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि कृष्ण भगवान हैं। अतः वे पूर्णतया उनकी शरण में जाते हैं और कृष्ण भावनामृत में रहकर कृष्ण की भक्ति में अपने को रत रखते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. माया
  2. मम माया दुरत्यया

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