श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 388

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय 9 : श्लोक-3

इस श्रद्धा का विकास कृष्णभावनामृत की विधि है। कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की तीन कोटियाँ हैं। तीसरी कोटि में वे लोग आते हैं जो श्रद्धाविहीन हैं। यदि ऐसे लोग ऊपर-ऊपर भक्ति में लगे रहें तो भी उन्हें सिद्द अवस्था प्राप्त नहीं हो पाती। सम्भावना यही है कि वे लोग कुछ काल के बाद नीचे गिर जाएँ। वे भले ही भक्ति में लगे रहें, किन्तु पूर्ण विश्वास तथा श्रद्धा के अभाव में कृष्णभावनामृत में उनका लगा रह पाना कठिन है। अपने प्रचार कार्यों के दौरान हमें इसका प्रत्यक्ष अनुभव है कि कुछ लोग आते हैं और किन्हीं गुप्त उद्देश्यों से कृष्णभावनामृत को ग्रहण करते हैं। किन्तु जैसे ही उनकी आर्थिक दशा कुछ सुधर जाती है कि वे इस विधि को त्यागकर पुनः पुराने ढरें पर लग जाते हैं। कृष्णभावनामृत में केवल श्रद्धा के द्वारा ही प्रगति की जा सकती है। जहाँ तक श्रद्धा की बात है, जो व्यक्ति भक्ति-साहित्य में निपुण है और जिसने दृढ़ श्रद्धा की अवस्था प्राप्त कर ली है, वह कृष्णभावनामृत का प्रथम कोटि का व्यक्ति कहलाता है। दूसरी कोटि में वे व्यक्ति आते हैं जिन्हें भक्ति-शास्त्रों का ज्ञान नहीं है, किन्तु स्वतः ही उनकीदृढ़ श्रद्धा है कि कृष्णभक्ति सर्वश्रेष्ठ मार्ग है, अतः वे इसे ग्रहण करते हैं। तृतीय कोटि के व्यक्ति को यह श्रद्धा तो रहती है कि कृष्ण की भक्ति उत्तम होती है, किन्तु भागवत तथा गीता जैसे शास्त्रों से उसे कृष्ण का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त नहीं हो पता। कभी-कभी तृतीय कोटि के व्यक्तियों की प्रवृत्ति कर्मयोग तथा ज्ञानयोग की ओर रहती है और कभी-कभी वे विचलित होते रहते हैं, किन्तु ज्योंही उनसे ज्ञान तथा कर्मयोग का संदूषण निकल जाता है, वे कृष्णभावनामिट की द्वितीय कोटि या प्रथम कोटि में प्रविष्ट होते हैं। कृष्ण के प्रति श्रद्धा भी तीन अवस्थाओं में विभाजित है और श्रीमद्भागवत में इनका वर्णन है। भागवत के ग्यारहवें स्कंध में प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय कोटि की आस्तिकता का भी वर्णन हुआ है। जो लोग कृष्ण के विषय में तथा भक्ति की श्रेष्ठता को सुनकर भी श्रद्धा नहीं रखते और यह सोचते हैं कि यह मात्र प्रशंसा है, उन्हें यह मार्ग अत्यधिक कठिन जान पड़ता है, भले ही वे ऊपर से भक्ति में रत क्यों न हों। उन्हें सिद्धि प्राप्त होने की बहुत कम आशा है। इस प्रकार भक्ति करने के लिए श्रद्धा परमावश्यक है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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