श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
परम गुह्य ज्ञान
अध्याय 9 : श्लोक-2
यहाँ कहा गया है कि भक्ति शाश्वत है। यह वैसी नहीं है, जैसा कि मायावादी चिन्तक साधिकार कहते हैं। यद्यपि वे कभी-कभी भक्ति करते हैं, किन्तु उनकी यह भावना रहती है कि जब तक मुक्ति न मिल जाये, तब तक उन्हें भक्ति करते रहना चाहिए, किन्तु अन्त में जब वे मुक्त हो जाएँगे तो ईश्वर से उनका तादात्म्य हो जाएगा। इस प्रकार की अस्थायी सीमित स्वार्थमय भक्ति शुद्ध भक्ति नहीं मानी जा सकती। वास्तविक भक्ति तो मुक्ति के बाद भी बनी रहती है।जब भक्त भगवद्धाम को जाता है तो वहाँ भी वह भगवान की सेवा में रत हो जाता है। वह भगवान से तदाकार नहीं होना चाहता। जैसा कि भगवद्गीता में देखा जाएगा, वास्तविक भक्ति मुक्ति के बाद प्रारम्भ होती है। मुक्त होने पर जब मनुष्य ब्रह्मपद पर स्थिर होता है (ब्रह्मभूत) तो उसकी भक्ति प्रारम्भ होती है (समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्)। कोई भी मनुष्य कर्मयोग, ज्ञानयोग, अष्टांगयोग या अन्य योग करके भगवान को नहीं समझ सकता। इन योग-विधियों से भक्तियोग की दिशा किंचित प्रगति हो सकती है, किन्तु भक्ति अवस्था को प्राप्त हुए बिना कोई भगवान को समझ नहीं पाता। श्रीमद्भागवत में इसकी भी पुष्टि हुई है कि जब मनुष्य भक्तियोग सम्पन्न करके विशेष रूप से किसी महात्मा से श्रीमद्भागवत या भगवद्गीता सुनकर शुद्ध हो जाता है, तो वह समझ सकता है कि ईश्वर क्या है। इस प्रकार भक्तियोग या कृष्णभावनामृत समस्त विद्याओं का राजा और समस्त गुह्यज्ञान का राजा है। यह धर्म का शुद्धतम रूप है और इसे बिना कठिनाई के सुखपूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है। अतः मनुष्य को चाहिए कि इसे ग्रहण करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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