श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 385

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय 9 : श्लोक-2

ज्यों-ज्यों वह उच्छिष्ट खाता रहा त्यों-त्यों वह ऋषियों के समान शुद्ध-हृदय बनता गया। चूँकि वे महाभागवत भगवान की भक्ति का आस्वाद श्रवण तथा कीर्तन द्वारा करते थे अतः नारद ने भी क्रमशः वैसी रुचि विकसित कर ली। नारद आगे कहते हैं–

तत्रान्वहं कृष्णकथाः प्रगायताम्
अनुग्रहेणाशृणवं मनोहराः।
ताः श्रद्धया मेऽनुपदं विशृण्वतः
प्रियश्रवस्यंग ममाभवद् रुचि:।।

ऋषियों की संगति करने से नारद में भी भगवान् की महिमा के श्रवण तथा कीर्तन की रुचि उत्पन्न हुई और उन्होंने भक्ति की तीव्र इच्छा विकसित की। अतः जैसा कि वेदान्तसूत्र में कहा गया है– प्रकाशश्च कर्मण्यभ्यासात्– जो भगवद्भक्ति के कार्यों में केवल लगा रहता है उसे स्वतः सारी अनुभूति हो जाती है और वह सब समझने लगता है। इसी का नाम प्रत्यक्ष अनुभूति है।

धर्म्यम् शब्द का अर्थ है “धर्म का पथ”। नारद वास्तव में दासी के पुत्र थे। उन्हें किसी पाठशाला में जाने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था। वे केवल माता के कार्यों में सहायता करते थे और सौभाग्यवश उनकी माता को भक्तों की सेवा का सुयोग प्राप्त हुआ था। बालक नारद को भी यह सुअवसर उपलब्ध हो सका कि वे भक्तों की संगति करने से ही समस्त धर्म के परमलक्ष्य को प्राप्त हो सके। यह लक्ष्य है– भक्ति, जैसा कि श्रीमद्भागवत में कहा गया है (स वै पुंसां परो धमों यतो भक्तिरधोक्षजे)। सामान्यतः धार्मिक व्यक्ति यह नहीं जानते कि धर्म का परमलक्ष्य भक्ति की प्राप्ति है जैसा कि हम पहले ही आठवें अध्याय के अन्तिम श्लोक की व्याख्या करते हुए कह चुके हैं (वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव) सामान्यतया आत्म-साक्षात्कार के लिए वैदिक ज्ञान आवश्यक है। किन्तु यहाँ पर नारद न तो किसी गुरु के पास पाठशाला में गये थे, न ही उन्हें वैदिक नियमों की शिक्षा मिली थी, तो भी उन्हें वैदिक अध्ययन के सर्वोच्च फल प्राप्त हो सके। यह विधि इतनी सशक्त है कि धार्मिक कृत्य किये बिना भी मनुष्य सिद्धि-पद को प्राप्त होता है। यह कैसे सम्भव होता है? इसकी भी पुष्टि वैदिक साहित्य में मिलती है- आचार्यवान् पुरुषो वेद। महान आचार्यों के संसर्ग में रहकर मनुष्य आत्म-साक्षात्कार के लिए आवश्यक समस्त ज्ञान से अवगत हो जाता है, भले ही वह अशिक्षित हो या उसने वेदों का अध्ययन न किया हो।

भक्तियोग अत्यन्त सुखकर (सुसुखम्) होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि भक्ति में श्रवणं कीर्तनं विष्णोः रहता है, जिससे मनुष्य भगवान् की महिमा के कीर्तन को सुन सकता है, या प्रामाणिक आचार्यों द्वारा दिये गये दिव्यज्ञान के दार्शनिक भाषण सुन सकता है। मनुष्य केवल बैठे रहकर सीख सकता है, ईश्वर को अर्पित अच्छे स्वादिष्ट भोजन का उच्छिष्ट खा सकता है। प्रत्येक दशा में भक्ति सुखमय है। मनुष्य गरीबी की हालत में भी भक्ति कर सकता है। भगवान् कहते हैं– पत्रं पुष्पं फलं तोयं– वे भक्त से हर प्रकार की भेंट लेने को तैयार रहते हैं। चाहे पात्र हो, पुष्प हो, फल हो या थोडा सा जल, जो कुछ भी संसार के किसी भी कोने में उपलब्ध हो, या किसी व्यक्ति द्वारा, उसकी सामाजिक स्थिति पर विचार किये बिना, अर्पित किये जाने पर भगवान् को वह स्वीकार है, यदि उसे प्रेमपूर्वक चढ़ाया जाये। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त हैं। भगवान् के चरणकमलों पर चढ़े तुलसीदल का आस्वादन करके सनत्कुमार जैसे मुनि महान भक्त बन गये। अतः भक्तियोग अति उत्तम है और इसे प्रसन्न मुद्रा में सम्पन्न किया जा सकता है। भगवान् को तो वह प्रेम प्रिय है, जिससे उन्हें वस्तुएँ अर्पित की जाती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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