श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 381

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय 9 : श्लोक-1

भगवद्गीता का प्रथम अध्याय शेष ग्रंथ की भूमिका जैसा है, द्वितीय तथा तृतीय अध्याय में जिस आध्यात्मिक ज्ञान का वर्णन हुआ है वह गुह्य कहा गया है, सातवें तथा आठवें अध्याय में जिन विषयों की विवेचना हुई है वे भक्ति से सम्बन्धित हैं और कृष्णभावनामृत पर प्रकाश डालने के कारण गुह्यतर कहे गये हैं। किन्तु नवें अध्याय में तो अनन्य शुद्ध भक्ति का ही वर्णन हुआ है। फलस्वरूप यह परमगुह्य कहा गया है। जिसे कृष्ण का यह परमगुह्य ज्ञान प्राप्त है, वह दिव्य पुरुष है, अतः इस संसार में रहते हुए भी उसे भौतिक क्लेश नहीं सताते। भक्तिरसामृत सिन्धु में कहा गया है कि जिसमें भगवान की प्रेमाभक्ति करने की उत्कृष्ट इच्छा होती है, वह भले ही इस जगत् में बद्ध अवस्था में रहता हो, किन्तु उसे मुक्त मानना चाहिए। इसी प्रकार भगवद्गीता के दसवें अध्याय में हम देखेंगे कि जो भी इस प्रकार लगा रहता है, वह मुक्त पुरुष है।

इस प्रथम श्लोक का विशिष्ट महत्त्व है। इदं ज्ञानम् (यह ज्ञान) शब्द शुद्धभक्ति के द्योतक हैं, जो नौ प्रकार की होती है– श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य तथा आत्म-समर्पण। भक्ति के इन नौ तत्त्वों का अभ्यास करने से मनुष्य आध्यात्मिक चेतना अथवा कृष्णभावनामृत तक उठ पाता है। इस प्रकार, जब मनुष्य का हृदय भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाता है तो वह कृष्णविद्या को समझ सकता है। केवल यह जान लेना कि जीव भौतिक नहीं है, पर्याप्त नहीं होता। यह तो आत्मानुभूति का शुभारम्भ हो सकता है, किन्तु उस मनुष्य को शरीर के कार्यों तथा उस भक्त के आध्यात्मिक कार्यों के अन्तर को समझना होगा, जो यह जानता है कि वह शरीर नहीं है।

सातवें अध्याय में भगवान की ऐश्वर्यमयी शक्ति, उनकी विभिन्न शक्तियों– परा तथा अपरा – तथा इस भौतिक जगत् का वर्णन किया जा चुका है। अब नवें अध्याय में भगवान की महिमा का वर्णन किया जायेगा।

इस श्लोक का अनसूयवे शब्द भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सामान्यतया बड़े से बड़े विद्वान भाष्यकार भी भगवान कृष्ण से ईर्ष्या करते हैं। यहाँ तक कि बहुश्रुत विद्वान भी भगवद्गीता के विषय में अशुद्ध व्याख्या करते हैं। चूँकि वे कृष्ण के प्रति ईर्ष्या रखते हैं, अतः उनकी टीकाएँ व्यर्थ होती हैं। केवल कृष्णभक्तों द्वारा की गई टीकाएँ ही प्रामाणिक हैं। कोई भी ऐसा व्यक्ति, जो कृष्ण के प्रति ईर्ष्यालु है, न तो भगवद्गीता की व्याख्या कर सकता है, न पूर्णज्ञान प्रदान कर सकता है। जो व्यक्ति कृष्ण को जाने बिना उनके चरित्र की आलोचना करता है, वह मुर्ख है। अतः ऐसी टीकाओं से सावधान रहना चाहिए। जो व्यक्ति यह समझते हैं कि कृष्ण भगवान हैं और शुद्ध तथा दिव्य पुरुष हैं, उनके लिए ये अध्याय लाभप्रद होंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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