श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 342

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-24

तथ्य तो यह है कि कोई बिना भक्ति के तथा कृष्णभावनामृत विकसित किये बिना कृष्ण को नहीं समझ सकता। इसकी पुष्टि भागवत में[1] हुई है –

अथापि ते देव पदाम्बुजद्वय प्रसादलेशानुगृहीत एव हि।
जानाति तत्त्वं भगवन् महिन्मो न चान्य एकोऽपि चिरं विचिन्वन्॥

“हे प्रभु! यदि कोई आपके चरणकमलों की रंचमात्र भी कृपा प्राप्त कर लेता है तो वह आपकी महानता को समझ सकता है। किन्तु जो लोग भगवा को समझने के लिए मानसिक कल्पना करते हैं वे वेदों का वर्षों तक अध्ययन करके भी नहीं समझ पाते।” कोई न तो मनोधर्म द्वारा, न ही वैदिक साहित्य की व्याख्या द्वार भगवान कृष्ण या उनके रूप को समझ सकता है। भक्ति के द्वारा की उन्हें समझा जा सकता है। जब मनुष्य हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे– इस महानतम जप से प्रारम्भ करके कृष्णभावनामृत में पूर्णतया तन्मय हो जाता है, तभी वह भगवान् को समझ सकता है। अभक्त निर्विशेषवादी मानते हैं कि भगवान कृष्ण का शरीर इसी भौतिक प्रकृति का बना है और उनके कार्य, उनका रूप इत्यादि सभी माया हैं। ये निर्विशेषवादी मायावादी कहलाते हैं। ये परमसत्य को नहीं जानते।

बीसवें श्लोक से स्पष्ट है– कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः– जो लोग कामेच्छाओं से अन्धे हैं वे अन्य देवताओं की शरण में जाते हैं। यह स्वीकार किया गया है कि भगवान के अतिरिक्त अन्य देवता भी हैं, जिनके अपने-अपने लोक हैं और भगवान का भी अपना लोक है। जैसा कि तेईसवें श्लोक में कहा गया है– देवान देवजयो यान्ति भद्भक्ता यान्ति मामपि– देवताओं के उपासक उनके लोकों को जाते हैं और जो कृष्ण के भक्त हैं वे कृष्णलोक को जाते हैं, किन्तु तो भी मुर्ख मायावादी यह मानते हैं कि भगवान निर्विशेष हैं और ये विभिन्न रूप उन पर ऊपर से थोपे गये हैं। क्या गीता के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि देवता तथा उनके धाम निर्विशेष हैं? स्पष्ट है कि न तो देवतागण, न ही कृष्ण निर्विशेष हैं। वे सभी व्यक्ति हैं। भगवान कृष्णपरमेश्वर हैं, उनका अपना लोक है और देवताओं के भी अपने-अपने लोक हैं।

अतः यह अद्वैतवादी तर्क कि परमसत्य निर्विशेष है और रूप ऊपर से थोपा (आरोपित) हुआ है, सत्य नहीं उतरता। यहाँ स्पष्ट बताया गया है कि यह ऊपर से थोपा नहीं है। भगवद्गीता से हम स्पष्टतया समझ सकते हैं कि देवताओं के रूप तथा परमेश्वर का स्वरूप साथ-साथ विद्यमान हैं और भगवान् कृष्ण सच्चिदानन्द रूप हैं। वेद भी पुष्टि करते हैं कि परमसत्य आनन्दमयोऽभ्यासात्– अर्थात वे स्वभाव से ही आनन्दमय हैं और वे अनन्त शुभ गुणों के आगार हैं। गीता में भगवान कहते हैं कि यद्यपि वे अज (अजन्मा) हैं, तो भी वे परकत होते हैं। भगवद्गीता से हम इस सारे तथ्यों को जान सकते हैं। अतः हम यह नहीं समझ पाते कि भगवान किस तरह निर्विशेष हैं? जहाँ तक गीता के कथन हैं, उनके अनुसार निर्विशेषवादी अद्वैतवादियों का यह आरोपित सिद्धान्त मिथ्या है। यहाँ स्पष्ट है कि परमसत्य भगवान कृष्ण के रूप और व्यक्तित्व दोनों हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10.14.29

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