श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 330

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-15

जब सारी जनसंख्या नराधम हो जाती है तो स्वाभाविक है कि उनकी सारी तथाकथित शिक्षा भौतिक प्रकृति की सर्वसमर्थ शक्ति द्वारा व्यर्थ कर दी जाती है। गीता के अनुसार विद्वान पुरुष वही है जो एक ब्राह्मण, कुत्ता, गाय, हाथी तथा चंडाल को समान दृष्टि से देखता है। असली भक्त की भी ऐसी ही दृष्टि होती है। गुरु रूप ईश्वर के अवतार श्रीनित्यानन्द प्रभु ने दो भाइयों जगाई तथा माधाई नामक विशिष्ट नराधमों का उद्धार किया और यह दिखला दिया कि किस प्रकार शुद्ध भक्त नराधमों पर दया करता है। अतः जो नराधम भगवान् द्वारा बहिष्कृत किया जाता है, वह केवल भक्त की अनुकम्पा से पुनः अपना अध्यात्मिक भावनामृत कर सकता है।

श्रीचैतन्य महाप्रभु ने भागवत-धर्म का प्रवर्तन करते हुए संस्तुति की है कि लोग विनीत भाव से भगवान के सन्देश को सुनें। इस सन्देश का सार भगवद्गीता है। विनीत भाव से श्रवण करने मात्र से अधम से अधम मनुष्यों का उद्धार हो सकता है, किन्तु दुर्भाग्यवश वे इस सन्देश को सुनना तक नहीं चाहते– परमेश्वर की इच्छा के प्रति समर्पण करना तो दूर रह। ये नराधम मनुष्य के प्रधान कर्तव्य की डटकर अपेक्षा करते हैं।

(3) दुष्कृतियों की तीसरी श्रेणी माययापहृतज्ञानाः की है अर्थात ऐसे व्यक्तियों की जिनका प्रकाण्ड ज्ञान माया के प्रभाव से शून्य हो चुका है। ये अधिकांशतः बुद्धिमान व्यक्ति होते हैं– यथा महान दार्शनिक, कवि, साहित्यकार, वैज्ञानिक आदि, किन्तु माया इन्हें भ्रान्त कर देती है, जिसके करण ये परमेश्वर की अवज्ञा करते हैं।

इस समय माययापहृतज्ञानाः की बहुत बड़ी संख्या है, यहाँ तक कि वे भगवद्गीता के विद्वानों के मध्य भी हैं। गीता में अत्यन्त सीधी सरल भाषा में कहा गया है कि श्रीकृष्ण ही भगवान् हैं। न तो कोई उनके तुल्य है, न ही उनसे बड़ा। वे समस्त मनुष्यों के आदि पिता ब्रह्मा के भी पिता बताये गये हैं | वास्तव में वे ब्रह्मा के ही नहीं, अपितु समस्त जीवयोनियों के भी पिता हैं। वे निराकार ब्रह्म तथा परमात्मा के मूल हैं और जीवात्मा में स्थित परमात्मा उनका अंश है। वे सबके उत्स हैं और सबों को सलाह दि जाती है कि उनके चरणकमलों के शरणागत बनें। इस सब कथनों के बावजूद ये माययापहृतज्ञानाः भगवान का उपहास करते हैं और उन्हें सामान्य मनुष्य मानते हैं। वे यह नहीं जानते कि भाग्यशाली मानव जीवन श्रीभगवान के दिव्य शाश्वत स्वरूप के अनुरूप ही रचा गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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