श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-7
निर्विशेषवादी अरूपम शब्द पर विशेष बल देते हैं। किन्तु यह अरूपम शब्द निराकार नहीं है। यह दिव्य सच्चिदानन्द स्वरूप का सूचक है, जैसा कि ब्रह्मसंहिता में वर्णित है और ऊपर उद्धृत है। श्वेताश्वतर उपनिषद् के अन्य श्लोकों[1] से भी इसकी पुष्टि होती है – वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्। “मैं उन भगवान को जानता हूँ जो अंधकार की समस्त भौतिक अनुभूतियों से परे हैं। उनको जानने वाला ही जन्म तथा मृत्यु के बन्धन का उल्लंघन कर सकता है। उस परमपुरुष के इस ज्ञान के अतिरिक्त मोक्ष का कोई अन्य साधन नहीं है।” “उन परमपुरुष से बढ़कर कोई सत्य नहीं क्योंकि वे श्रेष्ठतम हैं। वे सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर हैं और महान से भी महानतर हैं। वे मूक वृक्ष के समान स्थित हैं और दिव्य आकाश को प्रकाशित करते हैं। जिस प्रकार वृक्ष अपनी जड़ें फैलाता है, ये भी अपनी विस्तृत शक्तियों का प्रसार करते हैं।” इस श्लोकों से निष्कर्ष निकलता है कि परमसत्य ही श्रीभगवान् हैं, जो अपनी विविध परा-अपरा शक्तियों के द्वारा सर्वव्यापी हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3.8-9
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