श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 306

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक-47

योगी की यह सर्वोच्च दशा केवल भक्तियोग से ही प्राप्त की जा सकती है जिसकी पुष्टि वैदिक साहित्य से होती है[1]

यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥

“जिन महात्माओं के हृदय में श्रीभगवान तथा गुरु में परम श्रद्धा होती है उनमें वैदिक ज्ञान का सम्पूर्ण तात्पर्य स्वतः प्रकाशित हो जाता है।”

भक्तिरस्य भजनं तदिहामुत्रोपाधिनैरास्येनामुष्मिन् मनःकल्पनमेतदेव नैष्कर्म्यम्– भक्ति का अर्थ है, भगवान की सेवा जो इस जीवन में या अगले जीवन में भौतिक लाभ की इच्छा से रहित होती है। ऐसी प्रवृत्तियों से मुक्त होकर मनुष्य को अपना मन परमेश्वर में लीन करना चाहिये। नैष्कर्म्य का यही प्रयोजन है [2]

ये सभी कुछ ऐसे साधन हैं जिनसे योग की परम संसिद्धिमयी अवस्था भक्ति या कृष्णभावनामृत को सम्पन्न किया जा सकता है।

इस प्रकार श्रीमदभगवद्गीता के छठे अध्याय “ध्यानयोग” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्वेताश्वतर उपनिषद 6.23
  2. गोपाल-तापनी उपनिषद 1.5

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