श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 279

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक-20-23

यह चितिशक्ति या अन्तरंगा शक्ति दिव्य है। पुरुषार्थ का तात्पर्य धर्म, अर्थ, काम तथा अन्त में परब्रह्म से तादात्म्य या मोक्ष है। अद्वैतवादी परब्रह्म से इस तादात्मय को कैवल्यम् कहते हैं। किन्तु पतञ्जलि के अनुसार कैवल्यम् वह अन्तरंगा या दिव्य शक्ति है जिससे जीवात्मा अपनी स्वाभाविक स्थिति से अवगत होता है। भगवान चैतन्य के शब्दों में यह अवस्था चेतोदर्पणामार्जनम् अर्थात् मन रूपी मलिन दर्पण का मार्जन (शुद्धि) है। यह मार्जन वास्तव में मुक्ति या भवमहादावाग्निनिर्वापणम् है। प्रारम्भिक निर्वाण सिद्धान्त भी इस नियम के सामन है। भागवत में [1] इसे स्वरूपेण व्यवस्थितिः कहा गया है। भगवद्गीता के इस श्लोक में भी इसी की पुष्टि हुई है।

निर्वाण के बाद आध्यात्मिक कार्यकलापों की या भगवद्भक्ति की अभिव्यक्ति होती है जिसे कृष्णभावनामृत कहते हैं। भागवत के शब्दों में– स्वरूपेण व्यवस्थितिः– जीवात्मा का वास्तविक जीवन यही है। भौतिक दूषण से अध्यात्मिक जीवन के कल्मष युक्त होने की अवस्था माया। इस भौतिक दूषण से मुक्ति का अभिप्राय जीवात्मा की मूल दिव्य स्थिति का विनाश नहीं है। पतञ्जलि भी इसकी पुष्टि इस शब्दों से करते हैं– कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति– यह चितिशक्ति या दिव्य आनन्द ही वास्तविक जीवन है। इसका अनुमोदन वेदान्तसूत्र में[2] इस प्रकार हुआ है– आनन्दमयोऽभ्यासात्। यह चितिशक्ति ही योग का परमलक्ष्य है और भक्तियोग द्वारा इसे सरलता से प्राप्त किया जाता है। भक्तियोग का विस्तृत विवरण सातवें अध्याय में किया जायेगा। इस अध्याय में वर्णित योगपद्धति के अनुसार समाधियाँ दो प्रकार की होती हैं– सम्प्रज्ञात तथा असम्प्रज्ञात समाधियाँ। जब मनुष्य विभिन्न दार्शनिक शोधों के द्वारा दिव्य स्थिति को प्राप्त होता है तो यह कहा जाता है कि उसे सम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त हुई है। असम्प्रज्ञात समाधि में संसारी आनन्द से कोई सम्बन्ध नहीं रहता क्योंकि इसमें मनुष्य इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले सभी प्रकार के सुखों से परे हो जाता है। एक बार इस दिव्य स्थिति को प्राप्त कर लेने पर योगी कभी उससे डिगता नहीं। जब तक योगी इस स्थिति को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक वह असफल रहता है। आजकल के तथाकथित योगाभ्यास में विभिन्न इन्द्रियसुख सम्मिलित हैं, जो योग के सर्वथा विपरीत है। योगी होकर यदि कोई मैथुन तथा मादकद्रव्य सेवन में अनुरक्त होता है तो वह उपहासजनक है। यहाँ तक कि जो योगी योग की सिद्धियों के प्रति आकृष्ट रहते हैं वे भी योग में आरूढ़ नहीं कहे जा सकते। यदि योगीजन योग की आनुषंगिक वस्तुओं के प्रति आकृष्ट हैं तो उन्हें सिद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं कहा जा सकता, जैसा कि इस श्लोक में कहा गया है। अतः जो व्यक्ति आसनों के प्रदर्शन या सिद्धियों के चक्कर में रहते हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि इस प्रकार से योग का मुख्या उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.10.6
  2. 1.1.12

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