श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 222

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-35

ब्रह्मविद्या का पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण हम माया से आवृत हैं इसीलिए हम अपने को कृष्ण से पृथक् सोचते हैं। यद्यपि हम कृष्ण के भिन्न अंश ही हैं, किन्तु तो भी हम उनसे भिन्न नहीं हैं। जीवों का शारीरिक अन्तर माया है अथवा वास्तविक सत्य नहीं है। हम सभी कृष्ण को प्रसन्न करने के निमित्त हैं। केवल माया के कारण ही अर्जुन ने सोचा कि उसके स्वजनों से उसका क्षणिक शारीरिक सम्बन्ध कृष्ण के शाश्वत आध्यात्मिक सम्बन्धों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। गीता का सम्पूर्ण उपदेश इसी ओर लक्षित है कि कृष्ण का नित्य दास होने के कारण जीव उनसे पृथक नहीं हो सकता, कृष्ण से अपने को विलग मानना ही माया कहलाती है। परब्रह्म के भिन्न अंश के रूप में जीवों को एक विशष्ट उद्देश्य पूरा करना होता है। उस उद्देश्य को भुलाने के कारण ही वे अनादिकाल से मानव, पशु, देवता आदि देहों में स्थित हैं। ऐसे शारीरिक अन्तर भगवान के दिव्य सेवा के विस्मरण से जनित हैं। किन्तु जब कोई कृष्णभावनामृत के माध्यम से दिव्य सेवा में लग जाता है, तो वह इस माया से तुरन्त मुक्त हो जाता है। ऐसा ज्ञान केवल प्रामाणिक गुरु से ही प्राप्त हो सकता है और इस तरह वह इस भ्रम को दूर कर सकता है कि जीव कृष्ण के तुल्य है। पूर्णज्ञान तो यह है कि परमात्मा कृष्ण समस्त जीवों के परम आश्रय हैं और इस आश्रय को त्याग देने पर जीव माया द्वारा मोहित होते हैं, क्योंकि वे अपना अस्तित्व पृथक समझते हैं। इस तरह विभिन्न भौतिक पहिचानों के मानदण्डों के अन्तर्गत के कृष्ण को भूल जाते हैं। किन्तु जब ऐसे मोहग्रस्त जीव कृष्णभावनामृत में स्थित होते हैं तो यः समझा जाता है कि वे मुक्ति-पथ पर हैं जिसकी पुष्टि भागवत में [1] की गई है – मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः। मुक्ति का अर्थ है – कृष्ण के नित्य दास रूप में (कृष्ण भावना मृत में) अपनी स्वाभाविक स्थिति पर होना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत 2.10.6

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