श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 184

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-6

श्रीमद्भागवत में वे अपनी माता के समक्ष नारायण रूप में चार भुजाओं तथा षड्ऐश्वर्यो से युक्त होकर प्रकट होते हैं। उनका आद्य शाश्वत रूप में प्राकट्य उनकी अहैतु की कृपा है जो जीवों को प्रदान की जाती है, जिससे वे भगवान के यथारूप में अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें न कि निर्विशेषवादियों द्वारा मनोधर्म या कल्पनाओं पर आधारित रूप में। विश्वकोश के अनुसार माया या आत्म-माया शब्द भगवान की अहैतु की कृपा का सूचक है। भगवान अपने समस्त पूर्व अविर्भाव-तिरोभावों से अवगत रहते हैं, किन्तु सामान्य जीव को जैसे ही नवीन शरीर प्राप्त होता है, वह अपने पूर्व शरीर के विषय में सब कुछ भूल जाता है। वे समस्त जीवों के स्वामी हैं, क्योंकि इस धरा पर रहते हुए वे आश्चर्य जनक तथा अतिमानवीय लीलाएँ करते रहते हैं। अतः भगवान् निरन्तर वही परमसत्य रूप हैं और उनके स्वरूप तथा आत्मा में या उनके गुण तथा शरीर में कोई अन्तर नहीं होता। अब यः प्रश्न किया जा सकता है कि इस संसार में भगवान क्यों आविर्भूत और तिरोभूत होते रहते हैं? अगले श्लोक में इसकी व्याख्या की गई है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः