श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 102

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-51

अज्ञानवश मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि यह भौतिक जगत् ऐसा दुखमय स्थान है जहाँ पद-पद पर संकट हैं। केवल अज्ञानवश अल्पज्ञानी पुरुष यह सोच कर कि कर्मों से वे सुखी रह सकेंगे सकाम कर्म करते हुए स्थिति को सहन करते हैं। उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि इस संसार में कहीं भी कोई शरीर दुखों से रहित नहीं है। संसार में सर्वत्र जीवन के दुख-जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि – विद्यमान हैं। किन्तु जो अपने वास्तविक स्वरूप को समझ लेता है और इस प्रकार भगवान् की स्थिति को समझ लेता है, वही भगवान की प्रेमा-भक्ति में लगता है। फलस्वरूप वह वैकुण्ठलोक जाने का अधिकारी बन जाता है, जहाँ न तो भौतिक कष्टमय जीवन है न ही काल का प्रभाव तथा मृत्यु है। अपने स्वरूप को जानने का अर्थ है भगवान् की अलौकिक स्थिति को भी जान लेना। जो भ्रमवश यह सोचता है कि जीव की स्थिति तथा भगवान् की स्थिति एक समान हैं उसे समझो कि वह अंधकार में है और स्वयं भगवद्भक्ति करने में असमर्थ है। वह अपने आपको प्रभु मान लेता है और इस तरह जन्म-मृत्यु की पुनरावृत्ति का पथ चुन लेता है। किन्तु जो यह समझते हुए कि उसकी स्थिति सेवक की है, अपने को भगवान् की सेवा में लगा देता है वह तुरन्त ही वैकुण्ठलोक जाने का अधिकारी बन जाता है। भगवान् की सेवा कर्मयोग या बुद्धियोग कहलाती है, जिसे स्पष्ट शब्दों में भगवद्भक्ति कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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