विषय सूची
श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
गीता का परिमाण और पूर्ण शरणागति
सभी जीव भगवान के अंश होने के नाते मानो उनके अंडे हैं। यदि जीव सर्वथा भगवान के शरण हो जाए तो उसका मोहरूप आवरण नष्ट हो जाता है और उसे भगवत-साधर्म्य की स्मृति प्राप्त हो जाती है। अर्जुन का मोहरूप आवरण नष्ट हो गया है- ‘नष्टो मोहः...’ और उनको स्मृति प्राप्त हो गयी है- ‘स्मृतिर्लब्धा’; अतः अब उनमें और भगवान में भेद नहीं रहा है। दूसरी बात, यदि सुनने वाला वक्ता से अभिन्न नहीं हुआ तो वास्तव में उसने सुना ही नहीं। विद्यार्थी पंडित से पढ़कर खुद पंडित नहीं बना तो वास्तव में उसने पढ़ा ही नहीं। ऐसे ही गुरु के पास जाकर भी यदि शिष्य संसार का गुरु अर्थात तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त नहीं बना तो वास्तव में उसने गुरु का उपदेश सुना ही नहीं अथवा उसको सच्चा गुरु मिला ही नहीं।[1] अब यह शंका रह जाती है कि भगवान ‘नष्टो मोहः-’ आदि पद स्वयं के प्रति कैसे बोल गये? इसके समाधान में यह कहना है कि भगवान को लोगों में यह बताना था कि एकाग्रतापूर्वक गीता के श्रवण, पठन, मनन आदि से साधक की स्वतः ऐसी स्थिति हो जाती है; परंतु ऐसा होने में वह अपने साधन, श्रवण, पठन, मनन आदि को नहीं, प्रत्युत भगवत्कृपा को ही सेतु माने। अतः साधन की ऊँची अवस्था में भी साधक अभिमानवश कहीं अटकन जाए, इसके लिए अर्जुन के माध्यम से मोहनाश का हेतु भगवत्कृपा को ही माना गया है। जब तक मनुष्य अपने उद्योग से अपना कल्याण मानता है और जब तक उसको बोध नहीं होता, तब तक उसमें अहंभाव पाया जाता है। अहंभाव का सर्वथा नाश होने पर उसको भगवान से अपनी अभिन्नता का अनुभव हो जाता है। उसको पता लग जाता है कि वास्तव में मैंने कुछ किया ही नहीं, सब काम भगवत्कृपा से ही हुआ है। जब भगवान ने अर्जुन से प्रश्न किया कि ‘तूने एकाग्रता से गीता सुनी या नहीं?’ तब अर्जुन ने उत्तर दिया- ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।’ तात्पर्य यह है कि अर्जुन ने अपने मोह का नाश सुनने से नहीं, प्रत्युत केवल भगवत्कृपा से ही माना। इससे स्पष्ट है कि उनका अहंभाव सर्वथा मिट गया था; तभी तो उनकी दृष्टि केवल कृपा की ओर थी। अतः भगवत्-साधर्म्यप्राप्त अर्जुन के ये वचन भगवान के ही माने गये हैं। साधारण रूप से विचार करें तो भी ‘नष्टो मोहः- करिष्ये वचनं तव’ पद भगवत्- साधर्म्यप्राप्त भगवत्स्वरूप महापुरुष के ही हो सकते हैं, न कि साधन के। साधन की ऊँची से ऊँची अवस्था में भी साधक में अभिमान और स्वार्थ का कुछ न कुछ अंश रहता ही है, तभी तो वह साधक कहलाता है। अतः वह अपने लिए उपर्युक्तपदों का प्रयोग कैसे कर सकता है? ये पद तो पूर्णावस्था में ही कहे जा सकते हैं।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑
पारस केरा गुण किसा, पलटा नहीं लोहा। कै तो निज पारस नहीं, कै बीच रहा बिछोहा ।।
पारस में अरु संत में, बहुत अंतरौ जान। वह लोहा कंचन करै, वह करै आपु समान ।।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज