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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
गीता का परिमाण और पूर्ण शरणागति
संपूर्ण गीता को देखने से पता चलता है कि भगवान के हृदय में अट्ठाईस बार बोलने का भाव जाग्रत हुआ है। इन अट्ठाइस उवाचों को श्लोक-गणना में मान लिया जाना चाहिए। ये ‘श्रीभगवानुवाच’ होने से मंत्रस्वरूप हैं। इन भाववाच भगवत्-श्लोकों के मंत्र-द्रष्टा संजय हैं। इसी प्रकार भगवत्-शरणागति के बाद तत्त्व-जिज्ञासु के रूप में भगवत्प्रेरित अर्जुन दूसरे अध्याय के चौवनवें श्लोक से लेकर अठारहवें अध्याय के पहले श्लोक तक सत्रह बार बोले हैं। अतः पैंतालीस (28+17=45) उवाच अपौरुषेय मंत्रवत हैं। इन पैंतालीस उवाचों को गीता को प्रचलित प्रति के अनुसार भगवान के कहे हुए पाँच सौ चौहत्तर श्लोकों के साथ जोड़ देने पर छः सौ उन्नीस श्लोक भगवान के हो जाते हैं। गीता की प्रचलित प्रति में अंतिम ‘अर्जुन उवाच’[1] के बाद अठारहवें अध्याय का तिहत्तरवाँ श्लोक भी अर्जुन का है; किंतु गीता परिणाम में ‘अर्जुन उवाच’- सहित एक श्लोक मानकर उसे भगवान के श्लोक में ही सम्मिलित किया गया है। इसके कारणों का उल्लेख आगे किया जाएगा। भगवान का अथवा किसी जीवन्मुक्त महापुरुष, अधिकारी कारक पुरुष का भाव जब किसी जीव के कल्याण का हो जाता है, तब उसका उसी क्षण कल्याण निश्चित समझ लेना चाहिए, जबकि उसे इसका उसी क्षण अनुभव नहीं होता। इसका पता तो उसे बाद में चलता है। कारण कि जब उसमें रहने वाली कमियों को भगवान अथवा महापुरुष उस जी के द्वारा शंकाओं के रूप में प्रकट कराकर दूर कर देते हैं, तब उसको अपने कल्याण (भगवान से साधर्म्य) का पता चलता है। अर्जुन ने जब एक अक्षौहिणी नारायणी सेना को छोड़कर केवल निःशस्त्र भगवान को ही स्वीकार किया[2], उसी समय भगवान के हृदय में अर्जुन के कल्याण का भाव जाग्रत हो गया। कारण कि जब साधक वैभव का त्याग करके केवल भगवान को स्वीकार कर लेता है, तब उसके कल्याण का उत्तरदायित्व भगवान पर आ जाता है। भगवान का भाव अर्जुन के कल्याण का हो जाने से अर्जुन का कल्याण तो निश्चित हो ही गया, पर उनमें रहने वाली कमियों को दूर करने के लिए भगवान उनसे शंकाएँ करवाते हैं और उनका समाधान करके उन्हें वैसे ही नष्ट कर देते हैं, जैसे आग ईंधन को।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 18:1
- ↑ एवमुक्तस्तु कृष्णेन कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः। अयुध्यमानं संग्रामे वरयामास केशवम् ।। (महाभारत, उद्योग. 7।21)
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