श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
इसका तात्पर्य यह हुआ कि देवता, पितर आदि की उपासना स्वरूप से त्याज्य नहीं है; परंतु भूत, प्रेत, पिशाच आदि की उपासना स्वरूप से ही त्याज्य है। कारण कि देवताओं में भगवद्भाव और निष्कामभाव हो तो उनकी उपासना भी कल्याण करने वाली है। परंतु भूत, प्रेत आदि की उपासना करने वालों की कभी सद्गति होती ही नहीं, दुर्गति ही होती है। हाँ, पारमार्थिक साधक भूत-प्रेतों के उद्धार के लिए उनका श्राद्ध-तर्पण कर सकते हैं। कारण कि उन भूत-प्रेतों को अपना इष्ट मानकर उनकी उपासना करना ही पतन का कारण है। उनके उद्धार के लिए श्राद्ध तर्पण करना अर्थात उनको पिण्ड-जल देना कोई दोष की बात नहीं है। संत महात्माओं के द्वारा भी अनेक भूत-प्रेतों का उद्धार हुआ है। संबंध- देवताओं के पूजन में तो बहुत-सी सामग्री, नियमों और विधियों की आवश्यकता होती है, फिर आपके पूजन में तो और भी ज्यादा कठिनता होती होगी? इसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अपना अंत-समय जानकर
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