श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पञ्चम अध्याय संबंध- भगवान ने योगनिष्ठा और सांख्यनिष्ठा का वर्णन करके दोनों के लिये उपयोगी ध्यानयोग का वर्णन किया। अब सुगमतापूर्वक कल्याण करने वाली भगवन्निष्ठा का वर्णन करते हैं। भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । व्याख्या- ‘भोक्तारं यज्ञतपसाम्’- जब मनुष्य कोई शुभ कर्म करता है, तब वह जिनसे शुभ कर्म करता है, उन शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि को अपना मानता है और जिसके लिये शुभ कर्म करता है, उसे उस कर्म का भोक्ता मानता है; जैसे- किसी देवता की पूजा की तो उस देवता को पूजा रूप कर्म का भोक्ता मानता है; किसी की सेवा की तो उसे सेवारूप कर्म का भोक्ता मानता है; किसी भूखे व्यक्ति को अन्न दिया तो उसे अन्न का भोक्ता मानता है, आदि। इस मान्यता को दूर करने के लिये भगवान उपर्युक्त पदों में कहते हैं कि वास्तव में संपूर्ण शुभ कर्मों का भोक्ता मैं ही हूँ। कारण कि प्राणिमात्र के हृदय में भगवान ही विद्यमान है।[2] इसलिये किसी का पूजन करना, किसी को अन्न-जल देना, किसी को मार्ग बताना आजि जितने भी शुभ कर्म हैं, उन सबका भोक्ता भगवान को ही मानना चाहिये। लक्ष्य भगवान पर ही रहना चाहिये, प्राणी पर नहीं। नवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में भी भगवान ने अपने को संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता बताया है- ‘अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता।’ दूसरी बात यह है कि जिनसे शुभ कर्म किये जाते हैं, वे शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि अपने नहीं है, प्रत्युत भगवान के हैं। उनको अपना मानना भूल ही है। उनको अपना मानकर अपने लिये शुभ कर्म करने से मनुष्य स्वयं उन कर्मों का भोक्ता बन जाता है। अतः भगवान कहते हैं कि तुम संपूर्ण शुभ कर्मों को अपने लिये कभी मत करो, केवल मेरे लिये ही करो। ऐसा करने से तुम उन कर्मों के फलभोगी नहीं बनोगे और तुम्हारा कर्मों से संबंध विच्छेद हो जायगा। कामना से ही संपूर्ण अशुभ कर्म होते हैं। कामना का त्याग करके केवल भगवान के लिये ही सब कर्म करने से अशुभ कर्म तो स्वरूप से ही नहीं होते तथा शुभ कर्मों से अपना संबंध नहीं रहता। इस प्रकार संपूर्ण कर्मों से सर्वथा संबंध विच्छेद होने पर परमशांति की प्राप्ति हो जाती है। ‘सर्वलोकमहेश्वरम्’- भिन्न-भिन्न लोकों के भिन्न-भिन्न ईश्वर हो सकते हैं; किंतु वे भी भगवान के अधीन ही हैं। भगवान संपूर्ण लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर हैं, इसलिये यहाँ ‘सर्वलोकमहेश्वरम्’ पद दिया गया है। तात्पर्य यह है कि संपूर्ण सृष्टि के एकमात्र स्वामी भगवान ही हैं, फिर कोई ईमानदार व्यक्ति सृष्टि की किसी भी वस्तु को अपनी कैसे मान सकता है? शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, स्त्री, पुत्र, धन, जमीन, मकान आदि को अपने मानते हुए प्रायः लोग कहा करते हैं कि भगवान ही सारे संसार के मालिक हैं। परंतु ऐसा कहना समझदारी नहीं है; क्योंकि मनुष्य जब तक शरीर, इंद्रियाँ, मन आदि को अपने मानता है, तब तक भगवान को सारे संसार का स्वामी कहना अपने आपको धोखा देना ही है। कारण कि यदि सभी लोग शरीरादि पदार्थों को अपने-अपने ही मानते रहें तो बाकी क्या रहा, जिसके स्वामी भगवान कहलाए? अर्थात भगवान के हिस्से में कुछ नहीं बचा। इसलिये ‘सब कुछ भगवान का है’- ऐसा वही कह सकता है, जो शरीरादि किसी भी पदार्थ को अपना नहीं मानता। जो किसी भी वस्तु को अपनी मानता है, वह वास्तव में भगवान को यथार्थ रूप से सर्वलोकमहेश्वर मानता ही नहीं। वह जितनी वस्तुओं को अपनी मानता है, उतने अंश में भगवान को सर्वलोकमहेश्वर मानने में कमी रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी
- ↑ ‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम्’ (गीता 13।17), ‘सर्वस्य चाहं हदि संनिविष्टः’ (गीता 15।15), ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुने तिष्ठति’ (गीता 18।61)
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