श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय संबंध- अब भगवान आगे के श्लोक में अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं। श्रीभगवानुवाच व्याख्या- ‘रजोगुणसमुद्भवः’- आगे चौदहवें अध्याय के सातवें श्लोक में भगवान कहेंगे कि तृष्णा[1] और आसक्ति से रजोगुण उत्पन्न होता है और यहाँ यह कहते हैं कि रजोगुण से काम उत्पन्न होता है और काम से राग बढ़ता है। तात्पर्य यह है कि सांसारिक पदार्थों को सुखदायी मानने से राग उत्पन्न होता है, जिससे अंतःकरण में उनका महत्त्व दृढ़ हो जाता है। फिर उन्हीं पदार्थों का संग्रह करने और उनसे सुख लेने की कामना उत्पन्न होती है। पुनः कामना से पदार्थों में राग बढ़ता है। यह क्रम जब तक चलता है, तब तक पाप-कर्म से सर्वथा निवृत्ति नहीं होती। ‘काम एष क्रोघ एषः’- मेरी मनचाही हो- यही काम है।[2]उत्पत्ति विनाशशील जड़-पदार्थों के संग्रह की इच्छा, संयोगजन्य सुख की इच्छा, सुख की आसक्ति- ये सब काम के ही रूप हैं। कामना की पूर्ति होने पर ‘लोभ’ उत्पन्न होता है[4]और कामना में बाधा पहुँचने पर[5] ‘क्रोध’ उत्पन्न होता है। यदि बाधा पहुँचाने वाला अपने से अधिक बलवान हो तो क्रोध उत्पन्न न होकर ‘भय’ उत्पन्न होता है। इसलिये गीता में कहीं-कहीं कामना और क्रोध के साथ-साथ भय की बात आयी है; जैसे- ‘वीतरागभयक्रोधाः’[6] और ‘विगतेच्छाभयक्रोधः’[7]। कामना संपूर्ण पापों, संतापों, दुःखों आदि की जड़ है। कामना वाले व्यक्ति को जाग्रत में सुख मिलना तो दूर रहा, स्वप्न में भी कभी सुख नहीं मिलता- ‘काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं’।[8] जो चाहते हैं, वह न हो और जो नहीं चाहते, वह हो जाय- इसी को दुःख कहते हैं। यदि ‘चाहते’ और ‘नहीं चाहते’ को छोड़ दें, तो फिर दुःख है ही कहाँ! नाशवान पदार्थों की इच्छा ही कामना कहलाती है। अविनाशी परमात्मा की इच्छा कामना के समान प्रतीत होती हुई भी वास्तव में ‘कामना’ नहीं है; क्योंकि उत्पत्ति विनाशशील पदार्थों की कामना कभी पूरी नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती ही रहती है, पर परमात्मा की इच्छा परमात्मप्राप्ति होने पर पूरी हो जाती है। दूसरी बात, कामना अपने से भिन्न वस्तु की होती है और परमात्मा अपने से अभिन्न हैं। इसी प्रकार सेवा[9], तत्त्वज्ञान[10] और भगवत्प्रेम[11] की इच्छा भी ‘कामना’ नहीं है। परमात्मप्राप्ति की इच्छा वास्तव में जीवन की वास्तविक आवश्यकता[12] है। जीव को आवश्यकता तो परमात्मा की है, पर विवेक के दब जाने पर वह नाशवान पदार्थों की कामना करने लगता है। एक शंका हो सकती है कि कामना के बिना संसार का कार्य कैसे चलेगा? इसका समाधान यह है कि संसार का कार्य वस्तुओं से, क्रियाओं से चलता है, मन की कामना से नहीं। वस्तुओं का संबंध कर्मों से होता है, चाहे वे कर्म पूर्वक[13] हों अथवा वर्तमान के उद्योग। कर्म बाहर के होते हैं और कामनाएँ भीतर की। बाहरी कर्मों का फल भी[14] बाहरी होता है। कामना का संबंध फल[15] की प्राप्ति के साथ है ही नहीं। जो वस्तु कर्म के अधीन है, वह कामना करने से कैसे प्राप्त हो सकती है? संसार में देखते ही हैं कि धन की कामना होने पर भी लोगों की दरिद्रता नहीं मिटती। जीवन्मुक्त महापुरुषों को छोड़कर शेष सभी व्यक्ति जीने की कामना रखते हुए ही मरते हैं। कामना करें या न करें, जो फल मिलने वाला है, वह तो मिलेगा ही। तात्पर्य यह है कि जो होने वाला है, वह तो होकर ही रहेगा और जो नहीं होने वाला है वह कभी नहीं होगा, चाहे उसकी कामना करें या न करें। जैसे कामना न करने पर भी प्रतिकूल परिस्थिति आ जाती है, ऐसे ही कामना न करने पर अनुकूल परिस्थिति भी आयेगी ही। रोग की कामना किये बिना भी रोग आता है और कामना किये बिना भी नीरोगता रहती है। निंदा-अपमान की कामना न करने पर भी निंदा अपमान होते हैं और कामना किये बिना भी प्रशंसा सम्मान होते हैं। जैसे प्रतिकूल परिस्थिति कर्मों का फल है, ऐसे ही अनुकूल परिस्थिति भी कर्मों का ही फल है, इसलिये वस्तु, परिस्थिति आदि का प्राप्त होना अथवा न होना कर्मों से संबंध रखता है, कामना से नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कामना
- ↑ ‘इदं मे स्यादिदं मे स्यादितीच्छा कामशब्दिता’ (‘यह मुझे मिल जाय, यह मुझे मिल जाय’- इस प्रकार की इच्छा ‘काम’ कहलाती है)।
- ↑ यद्यपि भगवत्प्रदत्त विवेक को महत्त्व न देना और भगवान से विमुख होना भी पाप में हेतु है, तथापि यहाँ ‘काम’ को ही पाप का हेतु इसलिये बताया गया है कि यह (तीसरा) अध्याय ‘कर्मयोग’ का है और कर्मयोग का प्रधान लक्ष्य कामना को मिटाना ही है।
- ↑ ‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई’ (मानस 1।180।1; 6।102।1)।
- ↑ बाधा पहुचाने वाले पर
- ↑ 4।10
- ↑ 5।28
- ↑ मानस 7।90।1
- ↑ कर्मयोग
- ↑ ज्ञानयोग
- ↑ भक्तियोग
- ↑ भूख
- ↑ प्रारब्ध
- ↑ वस्तु, परिस्थिति आदि के रूप में
- ↑ पदार्थ, परिस्थिति आदि
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