श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय स्वयं परमात्मा का अंश है और शरीर संसार का अंश है। जब मनुष्य परमात्मा को अपना मान लेता है, तब यह उसके लिये ‘स्वधर्म’ हो जाता है, और जब शरीर-संसार को अपना मान लेता है, तब यह उसके लिये ‘परधर्म’ हो जाता है, जो कि शरीर धर्म है। जब मनुष्य शरीर से अपना संबंध न मानकर परमात्मप्राप्ति के लिये साधन करता है, तब वह साधन उसका ‘स्वधर्म’ होता है। नित्य प्राप्त परमात्मा का अथवा अपने स्वरूप का अनुभव कराने वाले सब साधन ‘स्वधर्म’ है और संसार की ओर ले जाने वाले सब कर्म ‘परधर्म’ हैं। इस दृष्टि से कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- तीनों ही योगमार्ग मनुष्यमात्र के ‘स्वधर्म’ हैं। इसके विपरीत शरीर से अपना संबंध मानकर भोग और संग्रह में लगना मनुष्य मात्र का ‘परधर्म’ है। मनुष्य का खास काम है- परधर्म से विमुख होना और स्वधर्म के सम्मुख होना। ऐसा केवल मनुष्य ही कर सकता है। स्वधर्म की सिद्धि के लिये ही मनुष्य शरीर मिला है। परधर्म तो अन्य योनियों में तथा भोग प्रधान स्वर्गादि लोकों में भी है। स्वधर्म में मनुष्यमात्र सबल, पात्र और स्वाधीन है तथा परधर्म में मनुष्य मात्र निर्बल, अपात्र और पराधीन है। प्रकृतिजन्य वस्तु की कामना से अभाव का दुःख होता है और वस्तु के मिलने पर उस वस्तु की पराधीनता होती है जो कि ‘परधर्म’ है। परंतु प्रकृतिजन्य वस्तुओं की कामनाओं का नाश होने पर अभाव और पराधीनता सदा के लिये मिट जाती है, जो कि ‘स्वधर्म’ है। इस स्वधर्म में स्थित रहते हुए कितना ही कष्ट आ जाय, यहाँ तक कि शरीर भी छूट जाय, तो भी वह कल्याण करने वाला है। परंतु परधर्म के संबंध में सुख-सुविधा होने पर भी वह भयावह अर्थात बारंबार जन्म-मरण में डालने वाला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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