श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय मनुष्य सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति की तरह परमात्मा की प्राप्ति को भी कर्मजनन्य मान लेते हैं। वे ऐसा विचार करते हैं कि जब किसी बड़े[1] मनुष्य से मिलने में भी इतना परिश्रम करना पड़ता है, तब अनंतकोटि ब्रह्माण्ड नायक परमात्मा से मिलने में तो बहुत ही परिश्रम[2] करना पड़ेगा। वस्तुतः यही साधक की सबसे बड़ी भूल है। मनुष्य योनि का कर्मों से घनिष्ठ संबंध है। इसलिये मनुष्य योनि को 'कर्मसंगी' अर्थात 'कर्मों में आसक्ति वाली' कहा गया है- 'रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते'।[3] यही कारण है कि कर्मों में मनुष्य की विशेष प्रवृत्ति रहती है और वह कर्मों के द्वारा ही अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है। प्रारब्ध का साथ रहने पर वह कर्मों के द्वारा ही अभीष्ट सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त भी कर लेता है, जिससे उसकी यह धारणा पुष्ट हो जाती है कि प्रत्येक वस्तु कर्म करने से ही मिलती है और मिल सकती है। परमात्मा के विषय में भी उसका यही भाव रहता है और वह चेतन परमात्मा को भी जड़ कर्मों के ही द्वारा प्राप्त करने की चेष्टा करता है। परंतु वास्तविकता यही है कि परमात्मा की प्राप्ति कर्मों के द्वारा नहीं होती। इस विषय को बहुत गंभीरता पूर्वक समझना चाहिये। कर्मों से नाशवान वस्तु[4] की प्राप्ति होती है, अविनाशी वस्तु[5] की नहीं; क्योंकि संपूर्ण कर्म नाशवान[6] के संबंध से ही होते हैं, जबकि परमात्मा की प्राप्ति नाशवान से सर्वथा संबंध विच्छेद होने पर होती है। प्रत्येक कर्म का आरंभ और अंत होता है, इसलिये कर्म के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली वस्तु भी उत्पन्न और नष्ट होने वाली होती है। कर्मों के द्वारा उसी वस्तु की प्राप्ति होती है। जो देश-काल आदि की दृष्टि से दूर[7] होता सांसारिक वस्तु एक देश, काल आदि में रहने वाली, उत्पन्न और नष्ट होने वाली एवं प्रतिक्षण बदलने वाली है। अतः उसकी प्राप्ति कर्म-साध्य है। परंतु परमात्मा सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि में परिपूर्ण[8][9] एवं उत्पत्ति-विनाश और परिवर्तन से सर्वथा रहित है। अतः उनकी प्राप्ति स्वतः सिद्ध है, कर्म-साध्य नहीं। यही कारण है कि सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति चिंतन से नहीं होती, जबकि परमात्मा की प्राप्ति में चिंतन मुख्य है। चिंतन से वही वस्तु प्राप्त हो सकती है, जो समीप से समीप हो। वास्तव में देखा जाय तो परमात्मा की प्राप्ति चिन्तनरूप क्रिया से भी नहीं होती। परमात्मा का चिन्तन करने की सार्थकता दूसरे[10] चिंतन का त्याग कराने में ही है। संसार का चिंतन सर्वथा छूटते ही नित्यप्राप्त परमात्मा का अनुभव हो जाता है। सर्वव्यापी परमात्मा की हम से दूरी है ही नहीं और हो सकती भी नहीं। जिससे हम अपनी दूरी नहीं मानते, उस ‘मैं’- पनसे भी परमात्मा अत्यंत समीप है। ‘मैं’- पन तो परिच्छिन्न[11] है, पर परमात्मा परिच्छिन्न नहीं है। ऐसे अत्यंत समीपस्थ, नित्य प्राप्त परमात्मा का अनुभव करने के लिये सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति के समान तर्क तथा युक्तियाँ लगाना अपने-आपको धोखा देना ही है। सांसारिक वस्तु की प्राप्ति इच्छामात्र से नहीं होती; परंतु परमात्मा की प्राप्ति उत्कट अभिलाषा मात्र से हो जाती है। इस उत्कट अभिलाषा के जाग्रत होने में सांसारिक भोग और संग्रह की इच्छा ही बाधक है, दूसरा कोई बाधक है ही नहीं। यदि परमात्मा की प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा अभी जाग्रत हो जाय, तो अभी ही परमात्मा का अनुभव हो जाय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उच्चपदाधिकारी
- ↑ तप, व्रत आदि
- ↑ गीता 14।15
- ↑ संसार
- ↑ परमात्मा
- ↑ शरीर, इंद्रियाँ, मन आदि
- ↑ अप्राप्त
- ↑ नित्य प्राप्त
- ↑ देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं।। (मानस 1।184।3)
- ↑ संसार के
- ↑ एकदेशीय
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज