श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय संबंध- अब भगवान आगे के श्लोक में अर्जुन के पहले प्रश्न का उत्तर देते हैं। श्रीभगवानुवाच व्याख्या- [ गीता की यह एक शैली है कि जो साधक जिस साधन[1] के द्वारा सिद्ध होता है, उसी साधन से उसकी पूर्णता का वर्णन किया जाता है। जैसे, भक्तियोग में साधक भगवान के सिवाय और कुछ है ही नहीं- ऐसे अनन्य-योग से उपासना करता है[2]; अतः सिद्धावस्था में वह संपूर्ण प्राणियों में द्वेष भाव से रहित हो जाता है।[3] ज्ञानयोग में साधक स्वयं को गुणों से सर्वथा असंबद्ध एवं निर्लिप्त देखता है[4]; अतः सिद्धावस्था में वह संपूर्ण गुणों से सर्वथा अतीत हो जाताहै[5] ऐसे ही कर्मयोग में कामना के त्याग की बात मुख्य कही गयी है; अतः सिद्धावस्था में वह संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है- यह बात इस श्लोक में बताते हैं।] ‘प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्’- इन पदों का तात्पर्य यह हुआ कि कामना न तो स्वयं में है और न मन में ही है। कामना तो आने-जाने वाली है और स्वयं निरंतर रहने वाला है; अतः स्वयं में कामना कैसे हो सकती है? मन एक करण है और उसमें भी कामना निरंतर नहीं रहती, प्रत्युत उसमें आती है- ‘मनोगतान्’; अतः मन में भी कामना कैसे हो सकती है? परंतु शरीर-इंद्रियाँ-मन-बुद्धि से तादात्म्य होने के कारण मनुष्य मन में आने वाली कामनाओं को अपने में मान लेता है। ‘जहाति’ क्रिया के साथ ‘प्र’ उपसर्ग देने का तात्पर्य है कि साधक कामनाओं का सर्वथा त्याग कर देता है, किसी भी कामना का कोई भी अंश किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहता। अपने स्वरूप का कभी त्याग नहीं होता और जिससे अपना कुछ भी संबंध नहीं है, उसका भी त्याग नहीं होता। त्याग उसी का होता है, जो अपना नहीं है, पर उसको अपना मान लिया है। ऐसे ही कामना अपने में नहीं है, पर उसको अपने में मान लिया है। इस मान्यता का त्याग करने को ही यहाँ ‘प्रजहाति’ पद से कहा गया है। यहाँ ‘कामान्’ शब्द में बहुवचन होने से ‘सर्वान्’ पद उसी के अंतर्गत आ जाता है, फिर भी ‘सर्वान्’ पद देने का तात्पर्य है कि कोई भी कामना न रहे और किसी भी कामना का कोई भी अंश बाकी न रहे। ‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः’- जिस काल में संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आप में ही संतुष्ट रहता है अर्थात अपने-आप में सहज स्वाभाविक संतोष होता है। संतोष दो तरह का होता है- एक संतोष गुण है और एक संतोष स्वरूप है। अंतःकरण में किसी प्रकार की कोई भी इच्छा न हो- यह संतोष गुण है; और स्वयं में असंतोष का अत्यंताभाव है- यह संतोष स्वरूप है। यह स्वरूप भूत संतोष स्वतः सर्वदा रहता है। इसके लिए कोई अभ्यास या विचार नहीं करना पड़ता। स्वरूपभूत संतोष में प्रज्ञा[6] स्वतः स्थिर रहती है। ‘स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते’- स्वयं जब बहुशाखाओं वाली अनन्त कामनाओं को अपने में मानता था, उस समय भी वास्तव में कामनाएं अपने में नहीं थी और स्वयं स्थितप्रज्ञ ही था। परंतु उस समय अपने में कामनाएँ मानने के कारण बुद्धि स्थिर न होने से वह स्थितप्रज्ञ नहीं कहा जाता था अर्थात उसको अपनी स्थितप्रज्ञता का अनुभव नहीं होता था। अब उसने अपने में से संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर दिया अर्थात उनकी मान्यता को हटा दिया, तब वह स्थितिप्रज्ञ कहा जाता है अर्थात उसको अपनी स्थितप्रज्ञता का अनुभव हो जाता है। साधक तो बुद्धि को स्थिर बनाता है। परंतु कामनाओं का सर्वथा त्याग होने पर बुद्धि को स्थिर बनाना नहीं पड़ता, वह स्वतः स्वाभाविक स्थिर हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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