श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला । व्याख्या- [लौकिक मोहरूपी दलदल को तरने पर भी नाना प्रकार के शास्त्रीय मतभेदों को लेकर जो मोह होता है, उसको तरने के लिए भगवान इस श्लोक में प्रेरणा करते हैं।] ‘श्रुतिविप्रतिपन्ना ते......तदा योगमवाप्स्यसि’- अर्जुन के मन में यह श्रुतिविप्रतिपत्ति है कि अपने गुरुजनों का, अपने कुटुम्ब का नाश करना भी उचित नहीं है और अपने क्षात्रधर्म[1] का त्याग करना भी उचित नहीं है। एक तरफ तो कुटुम्ब की रक्षा हो और एक तरफ क्षात्रधर्म का पालन हो- इसमें अगर कुटुम्ब की रक्षा करें तो युद्ध नहीं होगा और युद्ध करें तो कुटुम्ब की रक्षा नहीं होगी- इन दोनों बातों में अर्जुन की श्रुतिविप्रतिपत्ति है, जिससे उनकी बुद्धि विचलित हो रही है।[2] अतः भगवान शास्त्रीय मतभेदों में बुद्धि को निश्चल और परमात्मप्राप्ति के विषय में बुद्धि को अचल करने की प्रेरणा करते हैं। पहले तो साधक में इस बात को लेकर संदेह होता है कि सांसारिक व्यवहार को ठीक किया जाय या परमात्मा की प्राप्ति की जाय? फिर उसका ऐसा निर्णय होता है कि मुझे तो केवल संसार की सेवा करनी है और संसार से लेना कुछ नहीं है। ऐसा निर्णय होते ही साधक की भोगों से उपरति होने लगती हैं, वैराग्य होने लगता है। ऐसा होने के बाद जब साधक परमात्मा की तरफ चलता है, तब उसके सामने साध्य और साधन-विषयक तरह-तरह के शास्त्रीय मतभेद आते हैं। इससे ‘मेरे को किस साध्य को स्वीकार करना चाहिये और किस साधन-पद्धति से चलना चाहिये’- इसका निर्णय करना बड़ा कठिन हो जाता है। परंतु जब साधक सत्संग के द्वारा अपनी रुचि, श्रद्धा विश्वास और योग्यता का निर्णय कर लेता है अथवा निर्णय न हो सकने की दशा में भगवान के शरण होकर उनको पुकारता है, तब भगवत्कृपा से उसकी बुद्धि निश्चल हो जाती है। दूसरी बात, संपूर्ण शास्त्र, संप्रदाय आदि में जीव, संसार और परमात्मा- इन तीनों का ही अलग-अलग रूपों से वर्णन किया गया है। इसमें विचारपूर्वक देखा जाय तो जीव का स्वरूप चाहे जैसा हो, पर जीव मैं हूँ- इसमें सब एकमत हैं; और संसार का स्वरूप चाहे जैसा हो, पर संसार को छोड़ना है- इसमें सब एकमत हैं; और परमात्मा का स्वरूप चाहे जैसा हो, पर उसको प्राप्त करना है- इसमें सब एकमत हैं। ऐसा निर्णय कर लेने पर साधक की बुद्धि निश्चल हो जाती है। मेरे को केवल परमात्मा को ही प्राप्त करना है- ऐसा दृढ़ निश्चय होने से बुद्धि अचल हो जाती है। तब साधक सुगमता पूर्वक योग- परमात्मा के साथ नित्ययोग को प्राप्त हो जाता है। शास्त्रीय निर्णय करने में अथवा अपने कल्याण के निश्चय में जितनी कमी रहती है, उतनी ही देरी लगती है। परंतु इन दोनों में जब बुद्धि निश्चल और अचल हो जाती है, तब परमात्मा के साथ नित्ययोग का अनुभव हो जाता है। संसार से संबंध विच्छेद करने के लिए बुद्धि ‘निश्चल’ होनी चाहिये, जिसको छठे अध्याय के तेईसवें श्लोक में ‘दुःखसंयोगवियोगम्’ पद से कहा गया है; और परमात्मा से संबंध जोड़ने के लिए बुद्धि ‘अचल’ होनी चाहिये, जिसको दूसरे अध्याय के अड़तालीसवें श्लोक में ‘समत्वं योग उच्यते’ पदों से कहा गया है। यहाँ ‘तदा योगमवाप्स्यसि’ पदों से जो योग की प्राप्ति बतायी है, वह योग ऐसा नहीं है कि पहले परमात्मा से वियोग था, उस वियोग को मिटा दिया तो योग हो गया, प्रत्युत असत् पदार्थों के साथ भूल से माने हुए संबंध का सर्वथा वियोग हो जाने का नाम ‘योग’ है अर्थात् मनुष्य की सदा से जो वास्तविक स्थिति[3] है, उस स्थिति में स्थित होना योग है। वह वास्तविक स्थिति ऐसी विलक्षण है कि उससे कभी वियोग होता ही नहीं, होना संभव ही नहीं। उसमें संयोग, वियोग, योग आदि कोई भी शब्द लागू नहीं होता। केवल असत् से माने हुए संबंध के त्याग को ही यहाँ योग संज्ञा दे दी है। वास्तव में यह योग नित्ययोग का वाचक है। इस नित्य योग की अनुभूति कर्मों के[4] द्वारा की जाय तो ‘कर्मयोग’, विवेक-विचार के द्वारा की जाय तो ‘ज्ञानयोग’, प्रेम के द्वारा की जाय तो ‘भक्तियोग’, संसार के लय-चिंतन के द्वारा की जाय तो ‘लययोग’, प्राणायाम के द्वारा की जाय तो ‘हठयोग’ और यम-नियमादि आठ अंगों के द्वारा की जाय तो ‘अष्टांगयोग’ कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ युद्ध करने
- ↑ जाल दो प्रकार का है- संसारी और शास्त्रीय। संसार के मोहरूपी दलदल में फँस जाना संसारी जाल में फँसना है और शास्त्रों के, संप्रदायों के द्वैत-अद्वैत आदि अनेक मत-मतान्तरों में उलझ जाना शास्त्रीय जाल में फँसना है। संसारी जाल तो उलझे हुए छटाँक सूत के समान हैं और शास्त्रीय जाल उलझे हुए सौ मन सूत के समान है। अतः भगवान यहाँ यह बताते हैं कि संसारी और शास्त्रीय- इन दोनों जालों में बुद्धि निश्चल (निश्चय वाली) होनी चाहिये और परमात्मा में बुद्धि अचल होनी चाहिये कि हमें तो परमात्मा की ही प्राप्ति करनी है, चाहे जो हो जाय।
- ↑ परमात्मा से नित्य योग
- ↑ सेवा के
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