श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय संबंध- अब तक देह और देही का जो प्रकरण चल रहा था, उसका आगे के श्लोक में उपसंहार करते हैं। देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत । व्याख्या- ‘देवी नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत’- मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, कीट पतंग आदि स्थावर- जंगम संपूर्ण प्राणियों के शरीर में यह देही नित्य अवध्य अर्थात अविनाशी है। ‘अवध्यः’- शब्द के दो अर्थ होते हैं-
‘तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि’- इसलिए तुम्हें किसी भी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए; क्योंकि इस देही का विनाश कभी हो ही नहीं सकता और विनाशी देह क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रहता। यहाँ ‘सर्वाणि भूतानि’ पदों में बहुवचन देने का आशय है कि कोई भी प्राणी बाकी न रहे अर्थात किसी भी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए। शरीर विनाशी ही है; क्योंकि उसका स्वभाव ही नाशवान है। वह प्रतिक्षण ही नष्ट हो रहा है। परंतु जो अपना नित्य स्वरूप है, उसका कभी नाश होता ही नहीं। अगर इस वास्तविकता को जान लिया जाए तो फिर शोक होना संभव ही नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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