श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । व्याख्या- ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च’- पूर्व श्लोक के अनुसार अगर शरीरी को नित्य जन्मने और मरने वाला भी मान लिया जाए, तो भी वह शोक का विषय नहीं हो सकता। कारण कि जिसका जन्म हो गया है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है, वह जरूर जन्मेगा। ‘तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि’- इसलिए कोई भी इस जन्म मृत्यरूप प्रवाह का परिहार[2] नहीं कर सकता; क्योंकि इसमें किसी का किञ्चिंमात्र भी वश नहीं चलता। यह जन्म मृत्युरूप प्रवाह तो अनादिकाल से चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा। इस दृष्टि से तुम्हारे लिए शोक करना उचित नहीं है। ये धृतराष्ट्र के पुत्र जन्में हैं, तो जरूर मरेंगे। तुम्हारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे तुम उनको बचा सको। जो मर जाएंगे वे जरूर जन्मेंगे। उनको भी तुम रोक नहीं सकते। फिर शोक किस बात का? शोक उसी का कीजिए, जो अनहोनी हो । जैसे, इस बात को सब जानते हैं कि सूर्य का उदय हुआ है, तो उसका अस्त होगा ही और अस्त होगा तो उसका उदय होगा ही। इसलिए मनुष्य सूर्य का अस्त होने पर शोक चिंता नहीं करते। ऐसे ही हे अर्जुन ! अगर तुम ऐसा मानते हो कि शरीर के साथ ये भीष्म, द्रोण आदि सभी मर जाएंगे, तो फिर शरीर के साथ जन्म भी जाएंगे। अतः इस दृष्टि से भी शोक नहीं हो सकता। भगवान ने इन दो[3] श्लोकों में जो बात कही है, वह भगवान का कोई वास्तविक सिद्धांत नहीं है। अतः ‘अथ च’ पद देकर भगवान ने दूसरे[4] पक्ष की बात कही है कि ऐसा सिद्धांत तो है नहीं, पर अगर तू ऐसा भी मान ले, तो भी शोक करना उचित नहीं है। इन दो श्लोकों का तात्पर्य यह हुआ कि संसार की मात्र चीजें प्रतिक्षण परिवर्तनशील होने से पहले रूप को छोड़कर दूसरे रूप को धारण करती रहती है। इसमें पहले रूप को छोड़ना- यह मरना हो गया और दूसरे रूप को धारण करना- यह जन्मना हो गया। इस प्रकार जो जन्मता है, उसकी मृत्यु होती है और जिसकी मृत्यु होती है, वह फिर जन्मता है- यह प्रवाह तो हरदम चलता ही रहता है। इस दृष्टि से भी क्या शोक करें? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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