श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय संबंध- पूर्व श्लोक तक शरीरी को अविनाशी जानने वालों की बात कही। अब उसी बात को अन्वय और व्यतिरेक रीति से दृढ़ करने के लिए, जो शरीरी को अविनाशी नहीं जानते, उनकी बात आगे के श्लोक में कहते हैं। य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्। व्याख्या- ‘य एनं[1] वेत्ति हन्तारम्’- जो इस शरीरी को मारने वाला मानता है; वह ठीक नहीं जानता। कारण कि शरीर में कर्तापन नहीं है। जैसे कोई भी कारीगर कैसा ही चतुर क्यों न हो, पर किसी औजार के बिना वह कार्य नहीं कर सकता, ऐसे ही यह शऱीरी शरीर के बिना स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता। अतः तेरहवें अध्याय में भगवान ने कहा कि सब प्रकार की क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा ही होती है- ऐसा जो अनुभव करता है, वह शरीरी के अकर्तापन का अनुभव करता है[2]। तात्पर्य यह हुआ कि शरीरी में कर्तापन नहीं है, पर यह शरीर के साथ तादात्म्य करके, संबंध जोड़कर शरीर से होने वाले क्रियाओं में अपने को कर्ता मान लेता है। अगर यह शरीर के साथ अपना संबंध न जोड़े, तो यह किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं है। ‘यश्चैनं मन्यते हतम्’- जो इसको मरा मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता। जैसे यह शरीरी मारने वाला नहीं है, ऐसे ही यह मरने वाला भी नहीं है; क्योंकि इसमें कभी कोई विकृति नहीं आती। जिसमें विकृति आती है, परिवर्तन होता है अर्थात जो उत्पत्ति-विनाश शील होता है, वही मर सकता है। ‘उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते’- वे दोनों ही नहीं जानते अर्थात जो इस शरीर को मारने वाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता और जो इसको मरने वाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता। यहाँ प्रश्न होता है कि जो इस शरीर को मारने वाला और मरने वाला दोनों मानता है, क्या वह ठीक जानता है? इसका उत्तर है कि वह भी ठीक नहीं जानता। कारण कि यह शरीरी वास्तव में ऐसा नहीं है। यह नाश करने वाला भी नहीं है और नष्ट होने वाला भी नहीं है। यह निर्विकार रूप से नित्य-निरंतर ज्यों का त्यों रहने वाला है। अतः इस शरीरी को लेकर शोक नहीं करना चाहिए। अर्जुन के सामने युद्ध का प्रसंग होने से ही यहाँ शरीरी को मरने-मारने की क्रिया से रहित बताया गया है। वास्तव में यह संपूर्ण क्रियाओं से रहित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ ‘एनम्’ पद अन्वादेश में आया है। जिसका पहले वर्णन हो चुका है, उसको दुबारा कहना ‘अन्वादेश’ कहलाता है। पहले सत्रहवें श्लोक में एक विषय को लेकर जिसका ‘अस्य’ पद से वर्णन हुआ है, तब यहाँ दूसरे विषय को लेकर उसी तत्त्व को दुबारा कह रहे हैं। इसलिए यहाँ ‘एनम्’ पद का प्रयोग किया गया है।
- ↑ 13।29
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