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प्रथम अध्याय
संबंधी- अपने सब कुटुम्बियों को देखने के बाद अर्जुन ने क्या किया- इसको आगे के श्लोक में कहते हैं।
- तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ।। 27 ।।
- कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
अर्थ- अपनी-अपनी जगह पर स्थित उन संपूर्ण बांधवों को देखकर वे कुंतीनंदन अर्जुन अत्यंत कायरता से युक्त होकर विषाद करते हुए ये वचन बोले।
व्याख्या- ‘तान् सर्वान्बन्धूनवस्थितान् समीक्ष्य’- पूर्वश्लोक के अनुसार अर्जुन जिनको देख चुके हैं, उनके अतिरिक्त अर्जुन ने बाह्लीक आदि प्रपितामह; धृष्टद्युम्र, शिखंडी, सुरथ आदि साले; जयद्रथ आदि बहनोई तथा अन्य कई संबंधियों को दोनों सेनाओं में स्थित देखा। ‘स कौन्तेयः कृपया परयाविष्टः’- इन पदों में ‘स' कौन्तेयः’ कहने का तात्पर्य है कि माता कुंती ने जिनको युद्ध करने के लिए संदेश भेजा था और जिन्होंने शूरवीरता में आकर ‘मेरे साथ दो हाथ करने वाले कौन हैं?’- ऐसे मुख्य-मुख्य योद्धाओं को देखने के लिए भगवान श्रीकृष्ण को दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा करने की आज्ञा दी थी, वे ही कुंतीनंदन अर्जुन अत्यंत कायरता से युक्त हो जाते हैं!
दोनों ही सेनाओं में जन्म के और विद्या के संबंधी-ही-संबंधी देखने से अर्जुन के मन में यह विचार आया कि युद्ध में चाहे इस पक्ष के लोग मरें, चाहे उस पक्ष के लोग मरें, नुकसान हमारा ही होगा, कुल तो हमारा नष्ट होगा, संबंधी तो हमारे ही मारे जायँगे! ऐसा विचार आने से अर्जुन की युद्ध की इच्छा तो मिट गयी और भीतर में कायरता आ गयी। इस कायरता को भगवान ने आगे[1] ‘कशमलम्’ तथा ‘हृदयदौर्बल्यम्’ कहा है, और अर्जुन ने [2] ‘कर्पण्यदोषोपहतस्वभावः’ कहकर इसको स्वीकार भी किया है।
अर्जुन कायरता से आविष्ट हुए हैं- ‘कृपयाविष्टः’ इससे सिद्ध होता है कि यह कायरता पहले नहीं थी, प्रत्युत अभी आयी है। अतः यह आगन्तुक दोष है। आगन्तुक होने से यह ठहरेगी नहीं। परंतु शूरवीरता अर्जुन में स्वाभाविक है; अतः वह तो रहेगी ही। अत्यंत कायरता क्या है? बिना किसी कारण निंदा, तिरस्कार, अपमान करने वाले, दुःख देने वाले, वैरभाव रखने वाले, नाश करने की चेष्टा करने वाले दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि आदि को अपने सामने युद्ध करने के लिये खड़े देखकर भी उनको मारने का विचार न होना, उनका नाश करने का उद्योग न करना- यह अत्यंत कायरतारूप दोष है। यहाँ अर्जुन को कायरता रूप दोष ने ऐसा घेर लिया है कि जो अर्जुन आदि का अनिष्ट चाहने वाले और समय-समय पर अनिष्ट करने का उद्योग करने वाले हैं, उन अधर्मियों- पापियों पर भी अर्जुन को करुणा आ रही है[3] और वे क्षत्रिय के कर्तव्यरूप अपने धर्म से च्युत हो रहे हैं।
‘विषीदन्निदमब्रवीत्’- युद्ध के परिणाम में कुटुम्बकी, कुलकी, देश की क्या दशा होगी- इसको लेकर अर्जुन बहुत दुःखी हो रहे हैं और उस अवस्था में वे ये वचन बोलते हैं, जिसका वर्णन आगे के श्लोकों में किया गया है।
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